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NCERT Class 12 Biology नोट्स Chapter 2:पुष्पी पादपों में लैंगिग जनन

🌻 पुष्पीय पादपों में लैंगिग जनन 🌻

  • 🌸 पुष्प की सरंचना  – पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह है। इसमें दो चक्र पाए जाते हैं।
  • (i) सहायह चक्र (Accessory whorl)
  • (ii) आवश्यक चक्र (Essential whorl)
  • (i) सहायह चक्र – सहायक चक्र में बाह्य दल व दल आते हैं। बाह्य दल हरे होते है जो पुष्प की कलिका अवस्था में सुरक्षा करते है। साथ ही प्रकाश संश्लेषण का कार्य भी करते है।
  • ► दल रंगीन होते है जो परागण क्रिया हेतु कीटों को आकर्षित करते है।
  • ► बाह्य दल व दल दोनो पुष्प के अंदर पाए जाने वाले जननांगों की सुरक्षा भी करते है, इसलिए सहायक चक्र कहलाते है।
  • (ii) आवश्यक चक्र – आवश्यक चक्र पुमंग व जायांग से मिलकर बना होता है।
  • ► पुमंग नर जननांग व जायांग मादा जननांग का कार्य करता है। इसलिए इन्हें आवश्यक चक्र कहते है।

लैंगिक जनन की प्रमुख घटनाएँ व सरंचानाएँ :- इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है।

  • निषेचन पूर्व :- इसे दो भागों में बाँटा गया है।
  • (i) पुंकेसर (Stamers)       
  • (ii) स्त्रीकेसर (Pistil /Carpels)

(i) पुंकेसर :-

  • यह पुष्प का नर जननांग कहलाता है।
  • सभी पुंकेसर मिलकर पुमंग का निर्माण करते है।
  • प्रत्येक पुंकेसर में तीन भाग होते है।
    a. परागकोश (Anther)
    b. योजी (Connective)
    c. पुतन्तु (Filament)
  • पुंकेसर में निम्नलिखित संरचनाएँ होती है –
    (i) लघुबीजाणुधानी (Microsporangium)   
    (ii) लघुबीजाणु जनन (Microsporogenesis)    
    (iii) लघुबीजाणु (Microspore)

पुंकेसर

  • (i) लघुबीजाणुधानी –  प्राय: पुंकेसर के परागकोश द्विपालित होते है और प्रत्येक पालि में दो लघुबीजाणुधानी पाई जाती है। दोनों पालियों में कुल चार लघुबीजाणुधानी होती है इसे “ट्रेट्रास्पोरेजिएट” कहते है।
  • परागकोश की संरचना – परागकोष द्विपालित संरचना है, जिसमें 4 लघु बीजाणुधानिया पाई जाती है।
  • प्रत्येक लघुबीजाणुधानी पर चार परते पाई जाती है।

a. बाह्य त्वचा यह परागकोश की सबसे बाहरी परत है, जो एकस्तरीय होती है।

b. अन्त: भित्ति यह भी एकस्तरीय परत है जो बाह्यत्वचा के ठीक नीचे होते है।
– इस पर में एल्फा – सेल्युलोज के रेशे पाए जाते है, जो परागकोष के स्फुंटन में मदद करते है।

c. मध्य स्तर –  यह एक से 3 स्तरीय होती है जो अल्पजीवी होती है।

d. टेपिटम  यह परागकोश की सबसे भीतरी परत है, जो विकसित होते हुए परागकणों को पोषण प्रदान करती है।
 – इस परत की कोशिकाएँ गाढ़े जीवद्रव्य वाली व पोषक युक्त पदार्थो वाली होती है, जिसमें एक से अधिक केंद्रक पाए जाते हैं।
  टेपिटम दो प्रकार के होती है।
(i) अमीबीय टेपिटम – टाइफा /पादप/आघ आवृत बीजी पादपों में।
(ii) स्त्रावी या ग्रंथिल टेपिटम – अंधिकांश आवृत बीजी पादप।

परागकोश की संरचना 

  •  (ii)   लघुबीजाणु जनन – लघुबीजाणु मातृ कोशिकाओं से लघु बीजाणु बनने की प्रक्रिया को लघुबीजाणु जनन कहते हैं।
  • प्रत्येक लघुबीजाणुधानी में प्राथमिक लघुबीजाणु जन कोशिकाएँ पाई जाती है, जो समसूत्री विभाजन करके लघु बीजाणु मातृ कोशिकाओं का निर्माण करती है।
  • प्रत्येक लघु बीजाणु मातृ कोशिका अर्द्धसूत्री विभाजन करके 4 अगुणित लघुबीजाणु का निर्माण् करती है।
  • लघुबीजाणु चतुष्क (Telrad) के रूप में व्यवस्थित होते है।
    जैसे – चतुष्फलकीय, समद्विपाश्वीक, क्रॉसित, रेखीय, T- आकारीय
  • एस्कलेपिडेसी कुल (आक) में लघुबीजाणु, परस्पर मिलकर पराग पिण्ड (पॉलिनियम) नामक संरचना बनाते हैं।

(iii)   लघुबीजाणु (नरयुग्मकोद्भिद् या परागकण) –

  • यह एककोशिकीय, एककेंद्रकीय अगुणित, सूक्ष्म गोलाकार संरचना है। जिसकी भित्ति दो स्तरों की बनी होती है, जो कि निम्न है।
  • इनका व्यास 25 – 50  μm (माइक्रोमीटर)
     (i) बाह्यचोल (Exine)   (ii) अन्त: चोल (Intine)
  • (i) बाह्यचोल  – यह परागकण की सबसे बाहरी परत है, जो “स्पोरोपोलेनिन” की बनी होती है। यह पदार्थ परागकण को भौतिक, जैविक अपघटन से सुरक्षा प्रदान करता है तथा उसे जीवाश्म के रूप में सुरक्षित रखता है।
  • परागकण की बाह्यचोल पर जननरंध्र पाए जाते है, जहाँ से परागनली बाहर निकलती है।
  • (ii) अन्त: चोल – यह परत बाह्यचोल के ठीक नीचे स्थित होती है। जो पेक्टिन व सेल्यूलोज की बनी होती है यह परत ही परागनली का निर्माण करती है।
  • परागकण समसूत्री विभाजन करके एककायिक बड़ी कोशिका व एक छोटी जनन कोशिका बनाता है।
  • जनन कोशिका से दो नर युग्मकों का निर्माण होता है।
  • परागकण दो कोशिकीय अवस्था में ही परागकोश में बाहर आते है।
  • पार्थेनियम (कांग्रेस घास), चीनोपोडियम, ज्वार आदि पादपों के परागकण मुनष्य में एलर्जी उत्पन्न करते है।
  • पराग उत्पाद (Pollen Product)
  • परागकण से बनने वाले खाने योग्य उत्पाद परागउत्पाद कहलाते है।
  • परागकणों में बहुत से पोषक तत्व मौजूद होते है, पश्चिम देशों में पराग कणों को खिलाडियों एवं दौड़ लगाने वाले घोड़ो की क्षमता बढ़ाने के लिए दिए जाते है।

परागकण का जीवन काल /जीवनक्षमता /अंकुरक्षमता (Viability of pollen grains)

  • वह काल या समय जिसमें परागकण कार्यशील अवस्था में रहता है, उसे परागकण का जीवनकाल कहते हैं।
  • अनाजों के परागकणों का जीवन काल केवन 30 मिनट का होता है है जबकि रोजसी, लेग्युमिनेसी, सोलेनेसी में परागकणों की जीवन क्षमता कई महिनों तक होती है।

शीत तापीयकरण (क्रायोप्रिजवैशन) (Pollen Bank)

  • इस तकनीक के अन्तर्गत परागकणों को द्रवित नाइट्रोजन [-196oc] में लम्बें समय तक सरंक्षित किया जाता है। इस प्रकार पराग बैंक बनाए जाते हैं।
  •  पराग बैंकों का उपयोग फसल के प्रजनन में किया जाता है क्योंकि यहाँ पर उत्तम गूणों वाले परागकणों का संग्रह किया जाता हैं।

(ii)  स्त्रीकेसर (Carpel)

  •  मादा जननांग (Apocarbous) स्त्रीकेसर कहलाता है जिसे अण्डप कहते हैं। एक से अधिक अण्डप हो सकते हैं। जब ये स्वतंत्र होते है। तब इन्हें वियुक्ताअण्डपी कहते हैं एवं जब ये आपस में संगलित (जुडे) होते है तब इन्हें युक्तांडयी (Syncarpous) कहते है।
  • उदाहरण – अफीम (पैपेवर)।
  • स्त्रीकेसर के अण्डाशय में बीजाण्ड पाये जाते है जिसे गुरू बीजाणु धानी कहते हैं
  • (i) गुरूबीजाणुधानी (बीजाण्ड) –
  • अण्डाश्य में बहुत सारे बीजाण्ड पाये जाते हैं और प्रत्येक बीजाण्ड गुरूबीजाणुधानी कहलाता है।
  • उदाहरण – माइचेलिया (Michelia), चम्पा (Champa)
  •  बीजाण्ड, बीजाण्डवृन्त द्वारा अण्डाशय भित्ति से जुडा होता है, इसें बीजाण्डासन कहते हैं।
  •  बीजाण्ड के जिस भाग से बीजाण्ड वृन्त जुडा होता है जिसे हाइलम (Hylum/नाभिका) कहते हैं।

🌷 बीजाण्ड की संरचना

1. बीजाण्ड मदुतक Cell से बनी गोलाकार संरचना है, जिसे बीजाण्डकाय (न्यूसैलस) कहते हैं।

2. यदि बीजाण्ड में दो अध्यावरण हो तब इसे द्विअध्यावरणी, यदि एक अध्यावरण हो तो एक अध्यावरणी, यदि अध्यावरण नहीं हो तो अध्यावरण रहित बीजाण्ड कहलाता है।

3. बीजाण्ड का आधार भाग निभाग कहलाता है तथा शीर्ष भाग जिस पर अध्यावरण नहीं होता है है बीजाण्ड द्वार कहलाता है।

4. बीजाण्ड में भ्रुणकोष होता है। जो कि सात कोशिकीय व आठ केंद्रकीय वाला होता हैं।

5. भ्रुणकोष में निम्न संरचनाएँ पाई जाती हैं।

a. अण्ड उपकरण या अण्ड समुच्चय (Egg Apparatus)
b. प्रतिमुखी कोशिकाएँ (Antipodal cell)
c. केन्द्रीय कोशिकाएँ (Central cell)

  • (a)  अण्ड उपकरण
  • 1. बीजाण्ड द्वारा की ओर 3 Cells होती है जिसे अण्ड सम्मुचय कहते हैं।
  • 2. जिसमें मध्य कोशिका को अण्ड कोशिका कहते है व दो पार्श्व Cell सहायक Cell (symergid cell) कहलाती हैं।
  • 3. सहायक कोशिका में तन्तु रूपी सम्मुचय होता है जो परागनलिका को दिशा निर्देश प्रदान करने में सहायक होता हैं।
  • (b)  प्रतिमुखी कोशिकाएँ –
  • 1. यह निभाग की ओर उपस्थित होती है। जो संख्या में 3 होती है। ये Cells बाद में नष्ट हो जाती हैं।
  • (c)  कें द्रकीय कोशिका – यह संख्या में 1 होती है जो भ्रुणकोष के मध्य में स्थित होती है। इस कोशिका में दो केंद्रक होते है, जिन्हें ध्रुवीय केंद्रक कहते है। निषेचन के पश्चात् ये कोशिका भ्रुणपोष बनाती हैं।   
  • (ii) गुरू बीजाणु जनन –
  • 1. गुरू बीजाणु मातृ Cells से गुरू बीजाणु बनने की क्रिया को गुरू बीजाणु जनन कहते है।
  • 2. बीजाण्डकाय की कोई भी एक Cell बड़ी होकर स्पष्ट केंद्रक व सघन जीवद्रव्य वाली हो जाती है। जिसे प्रपसू कोशिका (आर्कीस्पोरियल कोशिका) कहते है।
  • 3. प्रसुतक Cells समसुत्री विभाजन करके दो Cells बनाती है-
  • i. भित्तीया कोशिका
  • ii. प्राथमिक बीजाणुजन कोशिका
  • 4. ये Cells बीजाणु की भित्ति का निर्माण करती है जबकि प्राथमिक बीजाण्ड जन कोशिकाएँ गुरूबीजाणु मातृ Cell की तरह कार्य करती है।
  • 5. गुरू बीजाणु मातृ Cell में अर्द्धसूत्री विभाजन में 4 गुरू बीजाणु (n) का निर्माण करती हैं।
  • 6. 4 गुरू बीजाणु में से 3 नष्ट हो जाते है तथा एक गुरूबीजाणु कार्यशील होकर भ्रूणपोष बनाता है।
  • 7. एक क्रार्यशील गुरूबीजाणु से मादा युग्मकोद्भिद के निर्माण को “एक बीजाणुज” विकास कहते हैं।
  • (iii)   भ्रूणकोष (मादा युग्मकोद्भिद) की संरचना –
  • 1. सक्रिय गुरू बीजाणु अगुणित होता है, इसे मादा युग्मकोद्भिद की प्रथम कोशिका कहते हैं।
  • 2. इस गुरू बीजाणु के केंद्रक में तीन समसूत्री विभाजन होते है, जिससे 8 केंद्रक बनते हैं।
  • 3. 4 केंद्रक एक ध्रुव पर तथा शेष 4 केंद्रक दूसरे ध्रुव पर चले जाते है।
  • 4. पहले ध्रुव से एक केंद्रक, केंद्र की ओर आता है तथा दुसरे ध्रुव से भी एक केंद्रक  केंद्र की ओर आता है। इन दोनों केंद्रकों को “ध्रुवीय केंद्रक” (Polar nuclei) कहते हैं। 
  • 5. कुछ समय पश्चात् केंद्रक के चारों ओर जीवद्रव्य एकत्रित होकर कोशिका भित्ति का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार 7 कोशिकीय व 8 केंद्रकीय संरचना बनती है। इसे भ्रुणकोष कहा जाता है। (एम्बियोसेक) (embryosac)
  • 6. निभाग की ओर 3 Cells से प्रतिमुखी Cells को  प्रतिमुखी Cells कहते है तथा बीजाण्ड द्वार की ओर 2 सहायक Cells  व एक अण्ड Cells व एक अण्ड Cell मिलकर अण्डसम्मुचय बनाती है।
  • 7. भ्रुणकोष के केंद्र में केंद्रिक कोशिका होती है जिसमें दोनों केंद्रक पृथक-पृथक रहते है।
  •  🍀 परागण (Pollination)
  •  परागकणों परागकोश में मुक्त होकर वतिकाग्र तक पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं।
  •  ये दो प्रकार का होता हैं।
  • i. स्वपरागण (Self – pollination)
  • ii. परपरागण (cross – pollination)

(i) स्वपरागण –

  •  जब किसी पुष्प के परागकणों का स्थानान्तरण उसी पुष्प के वतिकाग्र पर होता है तब स्वपरागण कहलाता है। यह दो प्रकार से होता है।
  • (a) स्वयुग्मन (ओटोगैमी)  (b) सजातीय पुष्पीय परागण
  • (a) स्वयुग्मन – इस प्रकार के स्वपरागण एक पुष्प के परागकणों का उसी पुष्प की वतिकाग्र तक पहुँचना होता है अर्थात् पुष्प अपने ही परागकणों द्वारा परागित होता है।
  • (b) सजातीय पुष्पीय परागण – जब एक पुष्प के परागकण उसी पौधे में उप. किसी दूसरे पुष्प की वतिकाग्र पर पहुँचते है, तब इसे सजातीय पुष्पीय परागण कहते है।
  •  स्वपरागण के लिए निम्न अनुकुलन पाए जाते है।
  • 1. उभयलिंगी :- ऐसे पौधों में उभयलिंगी पुष्प पाए जाते है।
  • 2. समकालपक्वता:- ऐसे पौधों के पुष्पों में पुमंग एवं जायांग एक साथ परिपक्व होते है।
  • 3. अनुन्मील्यता :- कुछ पौधों के पुष्प हमेशा ही बंद रहते है। तब ऐसे पुष्पों की अनुन्मीलयपुष्प (क्लिस्टोगेम्स) कहते है।
  • उदाहरण – कनकोआ, वायोला, ऑक्सेलिस, ड्रॉसेरा etc.
  • इन पुष्पों में आवश्यक रूप से स्वपरागण ही होता है।
  • 4. उन्मील्यता :- ऐसे पुष्प जो खुले रहते है।
  • (केसमोगेमस) उदाहरण – अधिकांश आवृतबीजी (सरसों, धतुरा)
  • (ii) परपरागण :-
  • जब एक पौधे के पुष्प के परागकण उसी जाति के किसी दुसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकग्र पर स्थानांतरित होते है, इसे परपरागण कहते है
  • परपरागण के लिए निम्न अनुकुलताएँ:-
  • 1. स्वबन्धीयता (self sterility):-
  •  कुछ पौधों के पुष्पों में स्वयं के द्वारा विकसित परागकणों का उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर अंकुरण नहीं होता है, जिसे स्वबंधीयता कहा जाता है। जैसे – Tabacco (तम्बाकु), आलू (Potato) and crucifers & क्रुसीफर्स।
  • 2. एकलिंगता:-
  • कुछ पौधो के पुष्प एकालिंगी होते है। जैसे:- पपीता, खजुर, मक्का, अरण्डी।

3. भिन्नकालपक्वता:-कुछ पौधों के पुष्पों मे नर व मादा जननांग के परिपक्व होने का समय अलग-अलग होता है। साल्विया इसमें परागकोश वर्तिकाग्र से पहले परिपक्व हो जाते है। इस लिए इसे पुपुर्वता (protandry) कहते है लेकिन ब्रेसीकेसी, रोजेसी कुल के बहुत से पौधों में मादा जननांग नर जननांग से पहले परिपक्व होता है, इसे स्त्रीपूर्वता (protogyny) कहते है।

4. हरकोगेमी:-
जब वर्तिकाग्र व परागकोष के बीच प्राकृतिक संरचनात्मक अवरोध पाया जाता हे, तब इसे हरकोगेमी कहते है।
उदा. कैरियोफाइलेसी कुल के सदस्य में पौधों में वर्तिका की लम्बाई पुंकेसरो से अधिक होने के कारण इनके मध्य परागण नही हो पाता।

5. विषमवर्तीकात्व:-
प्रिमुला में दो प्रकार के पुष्प पाए जाते है। एक पुष्प जिसमें वर्तिका लम्बी व पुंकेसर छोटे होते है तथा दुसरे पुष्प जिसमें वर्तिका छोटे तथा पुंकेसर लम्बे होते है। ऐसे पुष्प द्विरूपी कहलाते है जो कि परपरागण क्रिया को प्रेरित करते है।

 🍀 परापरागण की विधियाँ :-
परपरागण में परागकणों का स्थानांतरण विभिन्न विधियों जैविक व अजैविक कारको द्वारा होता है। ये विधियाँ निम्न है :-

वायुपरागण (एनिमोफिली) :-
जब परागकणों का स्थानांतरण वायु द्वारा होता है, तब हसे वायु परागण कहलते है।
✔️ वायु परागित पुष्पों के परागकण छोटे, हल्के चिकने तथा शुष्क होते है और इनका अधिक संख्या में उत्पादन होता हे।
✔️ वायु परगित पुश्प रंगहीन होते है इनकी वर्तिका व र्तिकाग्र रोमिल होती है।

 उदा. घास, गेहूँ मक्का।

जल परागण (हाइड्रोफिली):-
यह दो प्रकार से होता है जब परागण क्रिया जल द्वारा होती है तब इसे जल परागण कहते है जो केवल जलीय पादपों में ही पाया जाता है। यह दो प्रकार होता है।
(1) अधोजल :-
जब परागण जल के भीतर होता है तब उसे अधेजल परागण कहते है। इसमें परागकण लम्बे व फीते के समान होते है।
 उदा. हाइड्रिला सिरोटिफिलम, जोस्टेरा, सीग्रासेस (समुद्री घास)

(2) अधिजल :-
जब पुष्प जल की सतह पर परागित होते है तब उसे अधिजल परागण कहते है।
उदा. वेलिसनेरिया
Note – कुछ जलीय पौधे जैसे-जलकुंभी (वॉटर हाइसिंथ), कुमुदनी (वॉटर लिलि) में कीटों व वायु द्वारा परागण होता है।

  • निम्फिया में भी कीट परागण।

कीट परागण (Entomophily):-
मधुमक्खियाँ, तितलिया, पंतगे व बिटल आदि कीट परागण में सहायता करते है। लगभग 80 प्रतिशत कीट परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है। कीट परागी पुष्प चमकदार रंगीन, मकरदयुक्त तथा गंधयुक्त होते है। इनमें परागकण खुरदरे तथा चिपचिपे होते है।

पक्षी परागण:-
कुछ पौधों के पुष्प पक्षियों द्वारा परागित होते है। इनके पुष्प चमकदार आकर्षक व मकरंद युक्त होते है। इनमें पाए जाने वाले पुष्प नलिकाकार व प्यालेनुमा होते है।
उदा. निकोटियाना। (नलिकाकार पुष्प), कैलीस्टेमोना (प्यालेनुमा)

चमगादड़ परागण:-
कुछ पौधो में  पुष्प रात में खिलते है और अधिक मकदंर स्रावित करते है। चमगादड़ निशाचर (Nocturnal) प्राणी है जो इन पौधों में परागण के लिए सहायक होता है।
उदा. कदम्ब , कचनार, गोरख इमली इत्यादि।
Note – इनके अलावा, सर्पवृक्ष व आर्किड में घोघें (snails) द्वारा तथा गुलमोहर और सेमल में गिलहारी द्वारा परागण होता हैं।

🍀 परपरागण के लाभ:-
 परपरागण क्रिया में आनुवांशिक  पुर्नयोजन होता है जिसमें विभिन्नताएँ आती है और नई जातियों का विकास होता है।
* परागण क्रिया के विशिष्ठ उदाहरण:-

1.  वेलिसनेरिया में जल परागण :-
 वेलिसनेरिया पादप, जलीय पादप है यह जल के भीतर रहता है। अत: इस जलनिमग्न पादप कहते है

✔️यह एकलिंगी जलीय पादप है।

✔️इस पादप में नर व मादा पादप अलग-अलग होते है।

✔️ नर पादप नर पुष्प उत्पन्न् करता है जो टूटकर बंद अवस्था में जल की सतह पर आ जाते है। सतह पर आकार यह खुलते है।

✔️मादा पादप मादा पुष्प बनाता है जो लम्बे कुण्डलित वृन्त पर लगा होता है।

✔️नर पुष्प तैरते हुए मादा पुष्प के सम्पर्क में आते है तब बहुत से परागकण बाहर निकलते है जो व्यर्तिकाग्र से चिपक जाते है। परागण क्रिया के बाद मादा पुष्प बंद हो जाता है इसका वृन्त पुन: कुण्लित होकर पुष्प को पानी में खींच लेता है।

2.  युक्का पादप में कीट परागण :-

✔️युक्का प्रजाति के पुष्प, अण्डा पुष्प कहलाते है जिसमें एक शलभ (कीट), प्रोनुबा की मादा परागण के लिए विशेष कार्य करती है।

✔️ इस पौधे के पुष्प घंटाकार होते है जो उल्टे लटके हुए होते है। इन पुष्पों में वर्तिका पुंकेसरों से लम्बी होती है। अर्थात् मादा जननांग, नर जननांग की तुलना में अधिक लम्बाई वाला होता है।

✔️मादा शलभ परागकण अपने मुँह में एकत्रित करती हुई पुष्प में प्रवेश करती है। अण्डाशय के अंदर अपने अण्डे रखती है। इस कार्य में 20 प्रतिशत तक बीजाण्ड नष्ट हो जाते है लेकिन इन मादा शलामों के बिना परागण संभव नहीं होता है।

✔️ अण्डे रखने के बाद मादा शलभ वर्तिका से होती हुई वतिकाग्र पर पहुँच कर अपने मुँह में रखे परागकणों को उगल देती है।

✔️इस प्रकार युक्का प्रजाति में कीट परागण होता है।

✔️अन्य उदाहरण:- एमोरफोफेलस।

 🍀 परागकण तथा जायांग (पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण) की पारस्परिक क्रिया :-

✔️बहुत से  पादपों के परागकण एक पुष्प की वर्तिकाग्र पर गिरते है। पर ये सभी अंकुरित नहीं होते। इसमें से केवल समान प्रजाति के परागकण ही अंकुरित होते है।

✔️ वर्तिकाग्र की सतह पर उपस्थित विभिन्न स्राव जिनमें लिपिड, शर्करा, रेजिन व बॉरोन आदि होते है जो परागकणों के अंकुरण हेतु अच्छा पोषक माध्यम तैयार करते है।

✔️ परागकण, जनन छिद्र से परागनली का निर्माण करता है। परागनली में जनन कोशिका दो नर युग्मकों का निर्माण करती है। इस प्रकार परागनली में कायिक कोशिका सहित तीन कोशिकाएँ पाई जाती है। यह परागनली वर्तिका से होती हुई बीजाण्ड तक पहुँचती है।

 🍀 कृत्रिम संकरण :-

✔️ जब दो अलग-अलग लक्षणों के भिन्न-भिन्न वंश के पादपों का क्रॉस करवाकर नई जाति प्राप्त की जाती है तब इस प्रक्रिया को कृत्रिम संकरण कहलते है।

✔️ कृत्रिम संकरण की प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखा जाता हैजो कि निम्न है।

  1. केवल उत्तम गुणों वाले पादप के परागकणों का ही उपयोग किया जाए।
  2. वर्तिकाग्र को अनैच्छिक परागकणों के संदूषण से सुरक्षित रखा जाए।

  उपरोक्त दोनों प्रक्रियाओं को करने के लिए निम्नलिखित तकनीको को काम में लिया जाता हे।

(1) विपुंसन (Emasculation)
(2) थैलिकरण (Bagging)

  • (1) विपुंसन :-
  •   इस क्रिया को बंध्याकरण भी कहते है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत पौधे के द्विलिंगी पुष्प के परागकोशों को अपरिपक्व अवस्था में कालिका से चिमटी द्वारा निकाल दिया जाता है।
  • (2) थैलिकरण :-
  •   इस प्रक्रिया में बंध्याकृत व अबंध्याकृत दोनों प्रकार के पुष्पों को पॉलिथिन या कागज की थैलीसे अनैच्छिक परागकणों द्वारा पुष्प की वर्तिकाग्र का संदूषण रोकने के लिए ढक दिया जाता है।
  •  ये थैलियाँ अतिसूक्ष्म छिद्रो से छिद्रित होती है ताकि वायु का आदान-प्रदान हो सके।

 🍀 निषेचन (द्विनिषेचन/दौहरा निषेचन व त्रिकसंलयन) :-

✔️ नर व मादा युग्मकों के संयोजन को  निषेचन कहते है। निषेचन का अध्ययन सर्वप्रथम स्ट्रॉस बर्गर ने लिलियम पादप में किया।

✔️ परागनली बीजाण्ड में सदैव बीजाण्डद्वार से ही प्रवेश करती है। परागनली सहायक कोशिका में उपस्थित तंतुरूपी समुच्चय से प्रवेश करती हुई अपने अग्र शिरे पर नष्ट हो जाती है। दोनो नर युग्मक स्वतंत्र हो जाते है और कायिक कोशिका नष्ट हो जती है।

✔️एक नर युग्मक अण्ड कोशिका से संयोजित होकर द्विगुणित युग्मनज बनाता है जो आगे भ्रुण का निर्माण करता था सत्य निषेचन भी कहते है।

✔️ दूसरा नर युग्मक द्वितीयक केंद्रक से संयोजित होकर त्रिगुणित प्राथमिक भ्रूणपोष बनाता है जो आगे भ्रूणपोष में बदल जाता है। इस प्रक्रिया को द्वितीय निषेचन कहते है। इसमें तीन अगुणित केद्रकों का संयोजन होता है। इस कारण इसे त्रिक संलयन भी कहते है।

✔️ इस प्रकार प्रथम व द्वितीय निषेचन की प्रक्रिया का होना द्विनिषेचन कहलाता है।

✔️ युग्मक संलयन की खोज स्ट्रॉस बर्गर ने तथा द्विनिषेचन की खोज S.G नावाश्चिन ने लिलियम व फ्रिटिलेरिया पादप में की।

 🍀 निषेचन पश्चात् :-

✔️ निषेचन के बाद बीजाण्ड बीज में व अण्डाशय फल में बदल जाता है।

✔️ युग्मनज से भ्रुण तथा प्राथमिक भ्रुणपोष से भ्रुणपोष बनता है।

(i) भ्रूणपोष :-

✔️ भ्रुणपोष एक पोषक उत्तक है जो विकसित होते हुए भ्रुण को पोषण प्रदान करता है।

✔️ इसका निर्माण पुष्पीय पौधों में निषेचन के बाद होता है।

✔️ भ्रुणपोष त्रिगुणित संरचना वाला होता है।

✔️ भ्रूणपोष भ्रूण के विकास व बीज के अंकूरण के समय उपयोग में आता है।

✔️ विकास के आधार पर भ्रूणपोष तीन प्रकार के होते है।

✔️ भ्रुणपोष तीन प्रकार का होता है।

 (1) केन्द्रकीय भ्रुणपोष
 (2) कोशिकीय भ्रुणपोष
 (3) माध्यमिक भ्रुणपोष (हेलोबियल भ्रुणपोष)

1.  केन्द्रकीय भ्रुणपोष –

✔️ केन्द्रकीय भ्रुणपोष सामान्य प्रकार का है इसमें प्राथमिक भ्रुणपोष का केंद्रक बार-बार विभाजन करके अनेक केन्द्रक बनाता है इस प्रकार के विभाजन को  स्वत्रंत नाभिक विभाजन कहते है। लेकिन जीवद्रव्य का विभाजन नहीं होता है।

✔️ ये केन्द्रक भ्रूणपोकष कि परिधि की ओर व्यवस्थित हो जाते है तथा केन्द्र में एक बड़ी रिक्तिका बन जाती है।

✔️ कुछ समय पश्चात् केंद्र के चारों ओर कोशिका भित्ति बन जाती है तब इसे कोशिकीय भ्रुणपोष कहते है।

✔️ उदा. आवृतबीजी के पोलीपेटेली वर्ग व एकबीजपत्री पादपों में पाये जाते है  जैसे – नारियल, चावल और मक्का आदि।

✔️ एक कच्चे नारियल का पानी केंद्रकीय भ्रुणपोष व इसके आस का सफेद भाग कोशिकीय भ्रुणपोष होता है।

2. कोशिकीय भ्रुणपोष –

✔️ इसमें भ्रूणपोष केन्द्रक के प्रत्येक विभाजन के पश्चात् कोशिका भित्ति का निर्माण होता है।

✔️ अत: यह आरंभ से अन्त तक कोशिकीय रहता है।

✔️ सामान्यत: इस प्रकार के भ्रूणपोष में चूषकांग विकसित हो जाते है।
      उदाहरण – धतूरा, पिटूनिआ।

✔️ इस प्रकार के भ्रूणपोष प्राय आवृत्तबीजी के गेमोपेटेली (Gamopetalae) वर्ग के सदस्यों में पाया जाता है।

3.  माध्यमिक भ्रुणपोष (हेलोबियल भ्रुणपोष) –

✔️ यह उपरोक्त दोनों प्रकार के भ्रूणपोषों के मध्य का भ्रूणपोष है। यह केवल एकबीजपत्री के हिलोबियेल गण में पाये जाने के कारण ही इस हेलोबियल (Helobial) भ्रूणपोष कहते हैं।

✔️ प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक के प्रथम विभाजन पश्चात एक अनुप्रस्थ भित्ति बनने से यह दो प्रकोष्ठ (बीजाण्डद्वारी प्रकोष्ठ व निभागी प्रकोष्ठ) में विभक्त हो जाता है। निभागी प्रकोष्ठ वाली छोटी कोशिका के केन्द्रक में मुक्त विभाजन होते हैं। बीजाण्ड द्वारी प्रकोष्ठ में केन्द्रक विभाजन एवं भित्ति निर्माण साथ-साथ होता है। इस प्रकार यह भ्रूणकोष केन्द्रकीय एवं कोशिकीय दोनों प्रकार के भ्रूणपोष का मिला-जुला रूप होता है।

🌱 भ्रुणपोष का कार्य : –

✔️ भ्रुणपोष की कोशिका में कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन वसा उपस्थित होते है जो विकसित होते हुए भ्रुण को पोषण प्रदान करते है।

(ii) भ्रुण का निर्माण :-

✔️ युग्मनज से भ्रुण बनने की क्रिया को भ्रुणोद्भव कहते है। जब भ्रुणपोष बनना प्रारंभ हो जाता हैं। तब युग्मनज में समसुत्री विभाजन होते है जो प्राक भ्रुण का निर्माण करते है।

✔️ यह प्राक भ्रुण पोषण प्राप्त कर गोलाकार, ह्रदयाकार, एक या दो बीज पत्र वाला घोडे की नाल की भाँति संरचना बनाता है।

✔️ पुष्पीय पादपों के द्विबीजपत्री एवं एकबीजपत्री पादपों में भ्रूण विकास निम्न प्रकार से होता हैं –

द्विबीजपत्री भ्रुण –

✔️ द्विबीजपत्री पादपों में भ्रूण का अध्ययन हेन्सटीन वैज्ञानिक के कैप्सेला पादप में किया था। इसमें युग्मनज अनुप्रस्थ विभाजन द्वारा दो कोशिकाएं बनाता है। बीजाण्डद्वार की ओर स्थित कोशिका को आधारी (Basal) कोशिका तथा निभाग ओर स्थित कोशका को अग्रस्थ (Apical) कोशिका कहते है।

✔️ आधारी कोशिका में अनेक अनुप्रस्थ विभाजन से 6 से 10 कोशकायुक्त लम्बी संरचना बनती है, जिसे निलम्बक (Suspensor) कहते हैं। निलम्बक की ऊपरी कोशिका फूलकर चूषकांग का कार्य करती है तथा अंतिम कोशिका स्फीतिका (Hyprophysis) कहलाती है। जो मूलगोप का निर्माण करती है।

✔️ अग्रस्थ कोशिका में पहला उदग्र विभाजन होने से दो कोशिकाएँ बनती है। इसी दौरान अग्रस्थ कोशिका की दोनों कोशिकायें अनुप्रस्थ विभाजन द्वारा विभाजित होकर चार भ्रूणीय कोशिकाओं का निर्माण कर देती है। ये चारों कोशिकायें पुन: विभाजित होकर आठ कोशिकाओं का अष्टांशक (octant) बनाती है। इनमें से हाइपोफाइसिस की ओर वाली, चार कोशिकायें हाइपोबेसल (hypobasal) तथा आगे की चार कोशिकायें एपीबेसल (epibasal) कोशिकायें होती हैं। हाइपोबेसल कोशिकाओं से मूलांकुर (Epicotyl) व अधोबीजपत्र  (hypocotyl) तथा एपीबेसल कोशिकाओं से प्रांकुर (plumule) व बीजपत्र (cotyedon) बनते हैं। भ्रूण वृद्धि के साथ ह्रदयाकार हो जाता है, जिसकी दोनों पालियों से बीजपत्र बनते हैं।

एकबीजपत्री भ्रुण –

✔️ एकबीजपत्री पौधे जैसे – चावल, मक्का, गेहूँ आदि में भ्रुण केवल एक बीजपत्र वाला होता है इस बीजपत्र को स्कुटेलम (प्रशलक) कहते है।

✔️ भ्रुण, बीजपत्र के पार्श्व में स्थित होता है।

✔️ बीजपत्र के जुड़ाव स्थल से ठीक ऊपर भ्रुण अक्ष का भाग, बीजपत्रोपरिक कहलाता है। इसमें प्राकुंर होते है जो प्राकुंरचोल से घिरा रहता है।

✔️ बीजपत्र के जुड़ाव स्थल के नीचे भ्रुणीय अक्ष का भाग बीजपत्राधार कहलाता है। इसमें मूलांकुर होता है जे मूलांकुरचोल से घिरा रहता है।

(iii) बीज का निर्माण :-

✔️ निषेचन के पश्चात् बीजण्ड से बीज का निर्माण होता है।

✔️ बीजाण्ड के दोनों अध्यावरण बीजचोल टेस्टा व टेगमेन बनाते है।

✔️ बीजाण्डकाय नष्ट हो जाता है परंतु कभी – कभी परिपक्व बीज में यह भ्रुणपोष के चारों ओर पतली परत के रूप में रहता है जिसे परिभ्रुणपोष कहते है।

उदाहरण – कालीमिर्च, चुकंदर।

✔️ प्रतिमुखी व सहायक कोशिकाएँ नष्ट हो जाती है तथा बीजाण्डवृन्त बीजवृन्त बनाता है।

✔️ बीजाण्डद्वार बीज में छिद्र के रूप में ही रहता है जो बीजअंकुरण के समय O2 व O2 के प्रवेश को सुगम बनाता है।

✔️ परिपक्व बीज सुख जाता है, भ्रुण निष्क्रिय अवस्था में आ जाता है जिसे भ्रुण की प्रसुप्तता (डोरमेंसी) अवस्था कहते है।

✔️ अनेक पौधो में बीज का निर्माण होते समय भ्रुण अपने विकास हेतु सम्पूर्ण भ्रुणपोष का उपयोग कर लेता है अत: बीज की परिपक्व अवस्था में भ्रुणपोष अनुपस्थित होता है इस प्रकार के बीजो को अभ्रुणपोषी बीज कहते है।

उदा:- सेम, चना, मटर।

✔️ कुछ बीजों में भ्रुण परिवर्तन के समय सम्पूर्ण भ्रुण पोप का उपयोग नहीं कर पाता है अत: परिपक्व बीज में भ्रुणपोष शेष बचा रहता है इस प्रकार के बीजों को भ्रुणपोषी बीज कहते है।

उदा:- गेहूँ, मक्का, बाजरा, अरण्डी, नारियल आदि।

क्र. संख्याबीजाण्डबीज
1.बीजाण्ड वृन्तबीजवृन्त
2.अध्यावरणबीजावरण (टेस्टा व टेगमेन)
3.प्रतिमुखी व सहायक Cellनष्ट
  *4.बीजाण्डकायनष्ट लेकिन कभी-कभी भ्रुणपोष के चारो ओर परिभ्रुण पोष के रूप में उपस्थित
5.अण्ड Cellयुग्मनज
6.केंद्रीय Cellप्राथमिक → भ्रुणपोष
7.बीजाण्ड द्वारबीज का सुक्ष्मछिद्र

🌼 बीजों की अंकुरण क्षमता :–

  • वह समय अवधि जब तक बीजों  अंकुरण शक्ति बनी रहती है तब इसे बीजों की अंकुरण क्षमता कहते है। इसे बीजों का अंकुरण काल भी कहा जाता है।
  • कुछ प्रजातियों के बीज की जीवन क्षमता कुछ ही महिने होती है लेकिन कुछ बीज सैकडों वर्ष तक जीवित रह सकते है।
  • जैसे – खजूर (फॉयनिक्स डेक्टीलिफेरा) के 2000 वर्ष पूराने बीजों में अंकुरण क्षमता पाई गई।
  • ठीक इसी तरह आर्कटिक टुंड्रा प्रदेश में मिले इस हजार वर्ष पूराने ल्युपिनस आर्कटिकस के बीज न केवल अंकुरित हुए बल्कि उनसे पुष्पधारी पादप भी उत्पन्न हुए।

(iii) फल का निर्माण :-

✔️ निर्षचन के पश्चात्-अण्डाश्य, फल में परिवर्तित हो जाता है। अण्डाश्य से निर्मित फल को सत्य फल कहते है।

✔️ कुछ पादप प्रजातियों में जैसे सेव, अखरोट, स्ट्रॉबेरी में फल का निर्माण पुष्पासन से होता है अत: इन फलों को असत्य फल या आभासी फल कहते है।

✔️ कभी-कभी कुछ अण्डाश्य बिना निषेचन के ही फल में विकसित हो जाते है। ऐसे फल को अनिषेक फल व क्रिया को अनिषेक फलन कहते है।

उदाहरण – केला, अंगुर, पपीता, अनानास।

✔️ आजकल विभिन्न हार्मोन जैसे ऑक्सीजन व जिब्बेरेलिन के छिड़काव से अनिषेक फल बनाए जाते है, इसे प्रेरित अनिषेक फलन कहते है।

🌼 असंगजनन :–

  • यह जनन की विशिष्ट विधि है इसे अन्तर्गत पौधों में युग्मक संलयन की प्रक्रिया नहीं पाई जाती है अर्थात् युग्मक संलयन हुए बिना ही भ्रुण का निर्माण हो जाता है जिसे असंगजनन कहते है।
  • असंगजनन दो प्रकार का होता है – (एपोमिक्सिस)
    1. बीजाणुद्भिद् असंगजनन
    2. युग्मोकद्भिद् असंगजनन

1.  बीजाणुद्भिद् असंगजनन
इसके अन्तर्गत बीजाण्ड में उपस्थित बीजाण्डकाय या अध्यावरण की कोई भी कोशिका (2x), भ्रुण बना सकती है। इसे अपस्थानिक भ्रुणता भी कहते है।

2.  युग्मोकद्भिद् असंगजनन –
 इसके अन्तर्गत जब भ्रुणकोष की कोई भी कोशिका (x), बिना निषेचन के भ्रुण बनाती है।

  • युग्मोकद्भिद्, असंगजनन दो प्रकार से होता है –

🌼 बहुभ्रुणता (पॉलीएम्ब्रियोनी)

  सामान्यत: एक बीज में एक ही भ्रुण पाया जाता है जब एक बीज में दो या दो से अधिक भ्रुण उपस्थित हो तब यह स्थिति बहुभ्रुणता कहलाती है।

  • बहुभ्रुणता को सर्वप्रथम ल्युवेनहॉक ने संतरे के बीजों में देखा था।
  • बहुभ्रुणता के कुछ प्रमुख उदाहरण – निम्न है नींबू, संतरा, तम्बाकु आदि।
  • बहुभ्रुणता के प्रमूख कारण निम्न है –
    1. प्राकभ्रुण का विदलन।
    2. बीजाण्ड में एक से अधिक भ्रुणकोश की उपस्थिति।
    3. अण्डकोशिका के अलावा किसी अन्य कोशिका से भी भ्रुण का बनना।
  • 🌼 बहुभ्रुणता के प्रकार
  • 1. विदलन बहुभ्रूणता
  • 2. भ्रूणकोष में अण्ड कोशिका के अतिरिक्त किसी अन्य कोशिका से भ्रूण की उत्पत्ति
  • 3. भ्रूणकोष के बाहर स्थित बीजाण्ड की किसी भी द्विगुणित कोशिका से भ्रूण का विकास
  • 4. बीजाण्ड में एक से अधिक भ्रूणकोषों का विकास

Prachi

NCERT-NOTES Class 6 to 12.

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