Class 10 science Chapter 9 आनुवंशिकता एवं जैव विकास Notes in Hindi
10 Class Science Chapter 9 आनुवंशिकता एवं जैव विकास notes in hindi
Class 10 science Chapter 9 आनुवंशिकता एवं जैव विकास notes in hindi. जिसमे हम वंशागति , मेंडल का योगदान , लिंग निर्धारण , विकास की बुनियादी अवधारणाएँ आदि के बारे में पढ़ेगे ।
Textbook | NCERT |
Class | Class 10 |
Subject | विज्ञान |
Chapter | Chapter 9 |
Chapter Name | आनुवंशिकता एवं जैव विकास |
Category | Class 10 Science Notes |
Medium | Hindi |
Class 10 science Chapter 9 आनुवंशिकता एवं जैव विकास Notes in hindi
📚 Chapter = 9 📚
💠 आनुवंशिकता एवं जैव विकास💠
❇️ आनुवंशिकी :-
🔹 लक्षणों के वंशीगत होने एवं विभिन्नताओं का अध्ययन ही आनुवंशिकी कहलाता है ।
❇️ आनुवंशिकता :-
🔹 विभिन्न लक्षणों का पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वंशागत होना आनुवंशिकता कहलाता है ।
जनन के दौरान विभिन्न्ताओं का संचयन
विभिन्नता के लाभ
- (i) प्रकृति की विविधता के आधार पर विभिन्नता जीवों को विभिन्न प्रकार के लाभ हो सकते हैं। उदाहरण – ऊष्णता को सहन करने की छमता वाले जीवाणुओं को अधिक गर्मी से बचने की संभावना अधिक होती है।
- (ii) पर्यावरण कारकों द्वारा उत्तम परिवर्त का चयन जैव विकास प्रक्रम का आधार बनाता है।
- स्वतंत्र एवं जुड़े कर्णपालि मानव समष्टि में पाए जाने वाले दो परिवर्त हैं।
आनुवांशिकी –
जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें सजीवों में लक्षणों की आनुवंशिकता एवं विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है, आनुवंशिकी या जेनेटिक्स कहलाता है। जेनेटिक्स शब्द का प्रथम प्रयोग बेटसन ने किया।
आनुवांशिकी लक्षण
– वह लक्षण जिनका सजीवों में लैंगिक जनन द्वारा पीढी दर पीढी संचरण होता है।
वंशागति (हेरीडिटी) –
आनुवंशिक लक्षणो का जनक पीढी से संतति पीढी में संचरण वंशागति (हेरीडिटी) कहलाता हैं। हेरीडिटी शब्द का प्रयोग स्पेन्सर ने किया।
लैंगिक जनन में जीन विनिमय होने के कारण एक ही जाति के सजीवों के मध्य परस्पर विभिन्नताएँ पायी जाती हैं।
मेण्डलवाद
- मेण्डल के आनुवांशिकता के नियमों को मेण्डलवाद कहते है।
- ✯ ग्रेगॉर जॉन मेण्डल को आनुवांशिकी का जनक कहते हैं।
- ✯ मेण्डल ने वंशागति के नियमों का प्रतिपादन किया।
- ✯ मेण्डल का जन्म 22 जुलाई, 1822 को आस्ट्रिया के हेन्जनडॉर्फ प्रान्त के सिलिसियन गाँव में हुआ।
- ✯ सन् 1843 में आस्ट्रिया के ब्रुन शहर की चर्च में पादरी बने।
- ✯ चर्च के उद्यान में मेण्डल ने उद्यान मटर (पाइसम सेटाइवम) पर सात वर्ष तक संकरण प्रयोग किया।
- ✯ इनके प्रयोगों को ब्रुन सोसाइटी आफ नेचुरल हिस्ट्री के सामने प्रस्तुत किया गया।
- ✯ सन् 1866 में इन्हें इस सोसायटी की वार्षिकी में पादप संकरण प्रयोग के नाम से प्रकाशित किया गया।
- ✯ मेण्डल द्वारा उद्यान मटर पर किए गए इन प्रयोगों के परिणाम के आधार पर आनुवांशिकता के नियमों का प्रतिपादन किया गया इन्हें मेण्डलवाद भी कहते हैं।
- 6 जनवरी,1884 को मेण्डल की मृत्यु हो गई।
मेण्डल की सफलता के कारण
✯ मेण्डल ने एक समय में एक ही लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया।
✯ मेण्डल ने अपने संकरण प्रयोगों के सभी आंकडों का सावधानीपूर्वक सांख्यिकी विश्लेषण किया।
✯ मेण्डल ने अपने प्रयोग के लिए पादप का चुनाव सावधानीपूर्वक किया।
संकरण प्रयोगों के लिए मटर पौधे का चुनाव :-
मटर के पौधे का चुनाव निम्न कारणों से हुआ –
1. मटर एकवर्षीय पादप है।
2. मटर के पादप का आकार छोटा होता है।
3. मटर में बीजों की संख्या अधिक होती है।
4. मटर द्विलिंगी पादप है, स्वपरागण पाया जाता है।
5. मटर के पुष्पों में परपरागण आसानी से होता है।
6. मटर के पौधों में कई लक्षण विपरीत प्रभाव दर्शाते है।
मेंडल का प्रयोगों के लिए चयनित मटर के पौधे के प्रमुख लक्षण:-
पादप का लक्षण
|
प्रभावी लक्षण |
अप्रभावी लक्षण |
1. पादप की लम्बाई |
लम्बा |
बौना |
2. पुष्प की स्थिति |
अक्षीय |
शीर्ष |
3. पुष्प का रंग |
बैगनी |
सफेद |
4. फली की आकृति |
फूली हुई |
पिचकी हुई |
5. फली का रंग |
हरा |
पीला |
6. बीज की आकृती |
गोल |
झुरीदार |
7. बीज का रंग |
पीला |
हरा |
मेण्डल के नियमो की पुन: खोज :-
मेण्डल के नियमो की पुन: खोज हालैण्ड के ह्यूगो डी ब्रीज, जर्मनी के कार्ल कोरेन्स व आस्ट्रिया के एरिक वॉन शेरमेक ने अलग – अलग कार्य करते हुए की।
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आनुवांशिकी शब्दावली :-
मेण्डल द्वारा प्रस्तुत किए गए वंशागति के नियमों को समझने के लिए निम्न तकनीकी शब्दों का समझना अत्यन्त आवश्यक है –
1. जीन – वह कारक जो किसी एक लक्षण को नियंत्रित करता है, उसे जीन कहते हैं। मेण्डल द्वारा उपयोग में लिए गए कारक शब्द को जॉहनसन ने जीन नाम दिया।
2. युग्मविकल्पी – किसी एक लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दो विपर्यासी स्वरूपों को युग्मविकल्पी कहते हैं। जैसे पौधे की ऊँचाई को नियन्त्रित करने वाले जीन के दो युग्मविकल्पी T (लम्बापन) व t (बौनापन) है।
3. समयुग्मजी – जब किसी लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दोनों युग्मविकल्पी एक समान हो उसे समयुग्मजी कहते हैं जैसे – TT या tt
4. विषययुग्मजी – जब किसी लक्षण को नियंत्रित करने वाले जीन के दोनों युग्मविकल्पी असमान हो, उसे विषमयुग्मजी कहते हैं, जैसे – Tt.
5. लक्षणप्रारुप – किसी सजीव की बाह्म प्रतीती को लक्षणप्रारुप कहते है। जैसे – लम्बे पौधे समयुग्मजी (TT) या विषमयुग्मजी (Tt) हो सकते है।
6. जीनप्रारुप – किसी सजीव की आनुवंशिकी रचना को जीनप्रारुप कहते हैं। जैसे – शुद्ध या समयुग्मजी लम्बा (TT) व अशुद्ध या विषमयुग्मजी लम्बा (Tt.)
7. प्रभावी लक्षण – वह लक्षण जो F1 पीढी में स्वयं को अभिव्यक्त कर पाता है, प्रभावी लक्षण कहलाता है।
8. अप्रभावी लक्षण – वह लक्षण जो F1 पीढी में स्वयं को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, अप्रभावी लक्षण कहलाता है।
9. एक संकर संकरण – वह संकरण जिसमें एक लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे एक संकर संकरण कहते हैं।
10. द्विसंकर संकरण – वह संकरण जिसमें दो लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया जाता है, उसे द्विसंकर संकरण कहते हैं।
11. त्रिसंकरण संकरण – वह संकरण जिसमें तीन लक्षणों की वशांगति का अध्ययन किया जाता है, उसे त्रिसंकर संकरण कहते है।
12. बहुसंकर संकरण – वह संकरण जिसमें कई लक्षणों की वशांगति का अध्ययन किया जाता है, उसे बहुसंकर संकरण कहते हैं।
13. परीक्षण संकरण – वह संकरण जिसमें F1 पीढ़ी का संकरण अप्रभावी लक्षण प्रारुप वाले जनक के साथ किया जाता है, परीक्षण संकरण कहलाता हैं।
14. संकरपूर्वज या पश्च संकरण – वह संकरण जिसमें पीढी का संकरण दोनों जनकों में से किसी एक के साथ किया जाता है, संकरपूर्वज संकरण कहलाता है।
15. व्युत्क्रम संकरण – वह संकरण जिसमें ‘A’ पादप (TT) को नर व ‘B’ पादप (tt) को मादा जनक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है तथा दूसरे संकरण में ‘A’ पादप (TT) को मादा व ’B’ पादप (tt) को नर जनक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, उसे व्युत्क्रम संकरण कहते हैं।
16. जनक पीढ़ी – संतति प्राप्त करने के लिए जिन पौधों को संकरण करवाया जाता है, उन्हें जनक पीढ़ी कहते है।
17. F1पीढ़ी – जनकों के संकरण से प्राप्त प्रथम पीढ़ी को F1 पीढ़ी कहते है।
18. F2 पीढ़ी – F1 पीढ़ी के संकरण से प्राप्त संतति को F2 पीढ़ी कहते है।
19. एकसंकर अनुपात – एक संकर संकरण से प्राप्त अनुपात को एक संकर अनुपात कहते है।
20. द्विसंकर अनुपात – द्विसंकर संकरण से प्राप्त अनुपात को द्विसंकर अनुपात कहते है।
मेण्डल के वंशागति के नियम –
मेण्डल ने उद्यान मटर पर संकरण प्रयोगों के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन किया जिन्हें मेण्डल के वंशागति याआनुवंशिकता के नियम कहते हैं। ये नियम निम्नलिखित हैं –
1. प्रभाविता का नियम
2. पृथक्करण अथवा युग्मको की शुद्धता का नियम
3. स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम
1. प्रभाविता का नियम –
एक जोडी विपर्यासी लक्षण वाले पौधों का संकरण कराने पर F1 पीढी में एक लक्षण ही प्रकट होता है उसे प्रभावी लक्षण कहते है, जो लक्षण F1 पीढी में प्रकट नही होते उन्हें अप्रभावी लक्षण कहते है, यह प्रभाविता का नियम कहलात है।
उदाहरण:-
एक संकर संकरण :- एक जोडी विपर्यासी लक्षणों को ध्यान में रखकर किया गया संकरण जैसे – पादप की लम्बाई – लम्बा व बौना। मेण्डल ने शुद्ध लम्बे व शुद्ध बौने मटर के पौधे का चयन कर संकरण कराया।
प्रभाविता के नियम का निरूपण
इनके संकरण से प्राप्त F1 पीढी के सभी पादप लम्बे थे जो लक्षण प्रकट नहीं हुए वे अप्रभावी लक्षण कहलाये। जो लक्षण प्रकट हुए वे प्रभावी लक्षण कहलाये। यहाँ लम्बेपन का लक्षण प्रभावी व बौनेपन का लक्षण अप्रभावी है। पीढी की सभी संततियाँ विषमयुग्मनजी (Tt) होती हैं।
उदाहरण– यदि समयुग्मजी लम्बे (TT) एवं समयुग्मजी बौने (tt) पौधों में संकरण कराया जाता है तो F1 पीढ़ी में सभी संकर अथवा विषमयुग्मजी लम्बे (Tt) पौधे प्राप्त होते हैं।
विषमयुग्मजी में दोनों युग्मविकल्पी साथ–साथ रहते हुए एक–दूसरे से संदूषित नहीं होते हैं, युग्मक बनते समय दोनों युग्मविकल्पी एक–दूसरे से पृथक् होकर अलग–अलग युग्मकों में पहुँच जाते हैं।
जिस कारण F2 पीढ़ी में बौनेपन (tt) का लक्षण फिर से प्रकट हो जाता है। F2 पीढ़ी का लक्षण प्ररूप अनुपात 3 : 1 तथा जीन प्ररूप अनुपात 1 : 2 : 1 प्राप्त होता है
लक्षण प्ररूप अनुपात – 3 लम्बे : 1 बौना
जीन प्ररूप अनुपात – 1 समयुग्मजी : 2 विषमयुग्मजी : 1 समयुग्मजी
लम्बा लम्बे बौना
1(TT) : 2 (Tt) : 1 (tt)
2. पृथक्करण अथवा युग्मकों की शुद्धता का नियम :-
यह नियम भी मेण्डल के एकसंकर के परिणामों पर आधारित है। इस पीढी में दोनों लक्षण प्रकट होते है। जनन के दौरान युग्मकों के बनने के समय एक-दूसरे से पृथक् होना पृथक्करण कहलाता है। संकर संतति विषमयुग्मजी होते है, इसमें कारक युग्म के दोनों कारक साथ-साथ रहते है लेकिन युग्मक निर्माण के समय एक युग्मक में एक ही कारक उपस्थित होता है इसलिए इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम भी कहते है।
3.स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम :-
मेण्डल का यह नियम द्विसंकर संकरण के परिणामों पर आधारित है। इस नियम के अनुसार– यदि दो या दो से अधिक आधारित विपर्यासी लक्षणों युक्त पादपों का संकरण कराया जाता है तो
एक लक्षण की वंशागति का दूसरे लक्षण की वंशागति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् प्रत्येक लक्षण के युग्मविकल्पी केवल पृथक ही नहीं होते अपितु विभिन्न लक्षणों के युग्मविकल्पी एक – दूसरे के प्रति स्वतंत्र रूप से व्यवहार करते हैं या स्वतंत्र रूप से अपव्यूहित होते हैं, अत: इसे स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम कहते हैं।
द्विसंकर संकरण :- दो जोडी विपर्यासी लक्षणों को ध्यान में रखकर किया गया संकरण द्विसंकर संकरण कहलाता है, जैसे – बीज का आकार और बीज का रंग।
उदाहरण – यदि मटर के समयुग्मजी पीले गोलाकार (YYRR) बीज वाले पौधे का हरें, झुर्रीदार (yyrr) बीज वाले पौधे से संकरण कराया जाता है तो F1 पीढ़ी में सभी पौधे पीले गोलाकार बीज (YyRr) वाले प्राप्त होते हैं।
F1 पीढी के पादपों में लक्षण अनुसार अनुपात 9 : 3 : 3 : 1 प्राप्त हुआ इसे ही द्विसंकर अनुपात कहते है। इसका जीन अनुसार अनुपात 1 : 2 : 2 : 4 : 1 : 2 : 1 : 2 :1 प्राप्त हुआ।
द्विसंकर संकरण
|
RY |
Ry |
rY |
Ry |
RY |
RRYY गोल व पीले |
RRYy गोल व पीले |
RrYY गोल व पीले |
RrYy गोल व पीले |
Ry |
RRYy गोल व पीले |
RRyy गोल व पीले |
RrYy गोल व पीले |
Rryy गोल व पीले |
rY |
RrYy गोल व पीले |
RrYy गोल व पीले |
rrYY झुर्रीदार – पीला |
rrYy झुर्रीदार – पीला |
Ry |
RrYy गोल व पीले |
Rryy गोल व पीले |
rrYy झुर्रीदार – पीला |
rryy झुर्रीदार – हरे |
परिणांम :-
एकल संकर संकरण | द्वि संकर संकरण | |
---|---|---|
लक्षण प्ररूप |
3 : 1 |
9 : 3 : 3 : 1 |
जीन प्ररूप |
1 : 2 : 1 |
1 : 2 : 2 : 4 : 1 : 2 : 1 : 2 : 1 : |
लक्षणप्ररूप अनुपात
9 : 3 : 3 : 1
पीला गोलाकार हरा गोलाकार पीला झुर्रीदार हरा झुर्रीदार
जीनप्ररूप अनुपात
1 : 2 : 2 : 4 : 1
YYRR YyRR YYRr YyRr yyRR
2 : 1 : 2 : 1
YyRr YYrr Yyrr yyrr
लिंग निर्धारण
मानव में बच्चे का लिंग निर्धारण निम्न प्रकार होता है-
1. मानव के 46 गुणसूत्रों में 44 अलिंग गूणसूत्र व 2 लिंग गुणसूत्र होते हैं । पुरुष में ये लिंग गुणसूत्र XY परन्तु महिला में ये XX होते हैं।
2. पुरुष में नर युग्मक या शुक्राणु बनते समय ये XY गुणसूत्र पृथक् होकर अलग अलग शुक्राणुओं में पहुंचते हैं। इसी प्रकार महिला में भी मादा युग्मक या अण्ड बनते समय दोनों XX गुणसूत्र पृथक होकर अण्डों में पहुंचते हैं।
3. इस प्रकार पुरुषों के आधे शुक्राणु X गुणसूत्र वाले आधे Y गुणसूत्र वाले होंगे जबकि महिलाओं के सभी अण्ड X गुणसूत्र वाले ही होंगे ।
4. अब निषेचन के समय यदि X गुणसूत्र वाला शुक्राणु , अण्ड से संयोग करता हैं तो बनने वाले युग्मनज में XX गुणसूत्री संयोजन बनने के कारण शिशु लड़की होगी ।
किन्तु यदि निषेचन में Y गुणसूत्र वाला शुक्राणु , अण्ड से संयोग करता हैं तो बनने वाले युग्मनज में XY गुणसूत्री संयोजन बनने के कारण शिशु लड़का होगा।
इस प्रकार मानव में लिंग निर्धारण के लिए पुरुष का शुक्राणु ही पूर्णरूप में जिम्मेदार होता हैं।
लिंग निर्धारण में महिला की कोई भूमिका नहीं होंती है।
चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (1809-1882)
चार्ल्स डार्विन जब 22 वर्ष के थे तो उन्होंने साहसिक समुद्री यात्रा की। पाँच वर्षो में उन्होंने दक्षिणी अमेरिका तथा इसके विभिन्न द्वीपों की यात्रा की । इस यात्रा का उद्देश्य पृथ्वी पर जैव विविधता के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना था।
उनकी इस यात्रा ने जैव विविधता के विषय में उस समय व्याप्त दृष्टिकोण को सदा के लिए बदल दिया। यह भी अत्यंत रोचक हैं कि इंग्लैंड वापस आने के बाद वह पुन: किसी और यात्रा पर नहीं गए।
वह घर पर ही रहें तथा उन्होंने अनेक प्रयास किए जिनके आधार पर उन्होंने अपने ‘प्राकृतिक वरण द्वारा जैव विकास’ के अपने सिद्धांत की परिकल्पना की। वह यह नहीं जानते थे कि किस विधि द्वारा स्पीशीज में विभिन्नताएँ आती हैं।
उन्हें मेंडल के प्रयोगों का लाभ मिलता, परंतु ये दानों व्यक्ति – वैज्ञानिक न तो एक- दूसरे को और न ही उनके कार्य के विषय में जानते थे।
हम डार्विन के केवल उनके जैव विकासवाद के कारण ही जानते हैं । परंतु वह एक प्रकृतिशास्त्री भी थे तथा उनका एक शोध भूमि की उर्वरता बनाने में केंचूओं की भूमिका के विषय में था।
जीवन की उत्पत्ति अजैविक पदार्थों से हुई
जाति उद्भव
वह प्रक्रिया जिसके द्वारा नयी जातियां, वर्तमान जातियों से विकसित होती हैं , जाति उद्भवन कहलाती हैं। नयी जाति वह है जो अन्य जाति से अंतर्जनन से अवसमर्थ हो। जाति उद्भवन को निम्न कारक बढ़ावा देते हैं-
1. विभिन्नत भौगोलिक अवरोध जो कि जनन अलगाव को बढ़ावा देते हैं।
2. उत्तरोत्तर पीढ़ीयों में आनुवंशिक विचलन द्वारा परिवर्तनों का संग्रहण ।
3. प्राकृतिक चयन ।
उदाहरण – भृंगों की विशाल आबादी के मध्य यदि एक विशाल नदी आ जाए तो नदी के दोनों और की समष्टियां पृथक हो जाएगी और उनके बीच जनन नहीं होने से जनन अलगाव हो जाएगा ।
प्रत्येक समष्टि में लैंगिक जनन के फलस्वरूप उत्पन्न आनुवंशिक विचलन से नयी पीढ़ियों में परिवर्तन उत्पन्न होंगे और ये परिवर्तन उत्तरोत्तर पीढ़ीयों में संग्रहित होते जाएंगे ।
मान लीजिए इन परिवर्तनों की वजह से दोनों समष्टियो में हरे रंग के भृगों के एक बड़ी संख्या उत्पन्न हो जाती है। अब यदि कल्पना करें कि एक समष्टि में लाल भृगों को खाने वाले कौए, चीलों द्वारा समाप्त कर दिए जाते हैं।
जबकि दूसरी समष्टि में कौए लाल रंगके भूगों को खाकर समाप्त कर देकंगे ओर इस प्रकार हरे रंग के भृगों का प्राकृतिक चयन होगा और हरे रंग के भृगों की एक नयी जाति का विकास हो जाएगा।
4. जीन प्रवाह:- उन दो समष्टियों के बीच होता है जो पूरी तरह से अलग नहीं हो पाती है किंतु आंशिक रूप से अलग-अलग हैं।
5.आनुवंशिक विचलन:- किसी एक समष्टि की उत्तरोत्तर पीढ़ियों में जींस की बारंबरता से अचानक परिवर्तन का उत्पन्न होना।
6. प्राकृतिक चुनाव:- वह प्रक्रम जिसमें प्रकृति उन जीवों का चुनाव कर बढ़ावा देती है जो बेहतर अनुकूलन करते हैं।
7. भौगोलिक पृथक्करण:- जनसंख्या में नदी, पहाड़ आदि के कारण आता है। इससे दो उपसमष्टि के मध्य अंतर्जनन नहीं हो पाता।
आनुवंशिक विचलन
विकासीय संबंध योजना
1. समजात अभिलक्षण:-
विभिन्न जीवों में यह अभिलक्षण जिनकी आधारभूत संरचना लगभग एक समान होती है। यद्यपि विभिन्न जीवों में उनके कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं।
उदाहरण:- पक्षियों, सरीसृप, जल-स्थलचर, स्तनधारियों के पदों की आधारभूत संरचना एक समान है, किन्तु यह विभिन्न कशेरूकी जीवों में भिन्न-भिन्न कार्य के लिए होते हैं।
2. समरूप अभिलक्षण:-
वह अभिलक्षण जिनकी संरचना व संघटकों में अंतर होता है, सभी की उत्पत्ति भी समान नहीं होती किन्तु कार्य समान होता है।
उदाहरण:- पक्षी के अग्रपाद एवं चमगादड़ के अग्रपाद।
3. जीवाश्म:-
जीव के परिरक्षित अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं। उदाहरण:- जैसे कोई मृत कीट गर्म मिट्टी में सूख कर कठोर हो जाए।
मृत प्राणियों अथवा पौधों (जो अतीत में कभी जीवित थे) के अवशेषों अथवा छापों को जीवाश्म कहा जाता है।
सामान्यत: जीव की मृत्यु के बाद उसके शरीर का अपघटन हो जाता है। परन्तु कभी कभी जीव ऐसी परिस्थितियों में चला जाता हैं। (जैसे ऑक्सीजन अथवा नमी की अनुपस्थिति) जिसमें उसके शरीर का अपघटन नहीं हो पाता ।
और मृदा में उस जीव की छाप व उसके कुछ कठोर भाग सुरक्षित रह जाते हैं। जीव के इस प्रकार परिरक्षित अवशेष व छाप उसके जीवाश्म कहलाते हैं।
जीवाश्म, जैव विकास के पक्ष में प्रमाण उपलब्ध कराते हैं। जैसे आर्कियोप्टेरिक्स का जीवाश्म इस बात का प्रमाण उपलब्ध कराता हैं कि पक्षियों का विकास सरीसृपों से हुआ है।
उदाहरण:-
आमोनाइट – जीवाश्म-अकशेरूकी
ट्राइलोबाइट – जीवाश्म-अकशेरूकी
नाइटिया – जीवाश्म-मछली
राजोसौरस – जीवाश्म-डाइनोसॉर कपाल
जीवाश्मों के आयु निर्धारण की दो प्रमुख पद्धतियों हैं-
1. सापेक्ष पद्धति – खुदाई करने पर कम गहराई पर प्राप्त जीवाश्म अधिक नूतन हाते हैं अपेक्षाकृत उनके जो ज्यादा गहराई पर मिलते हैं। अत्यधिक गहराई पर प्राप्त जीवाश्म अत्यधिक प्राचीन होते हैं । आयु आंकलन की यह पद्धति सापेक्ष पद्धति कहलाती हैं।
2. कार्बन काल निर्धारण पद्धति (कार्बन डेंटिग पद्धति) – सभी जीवित जीवों में रेडियों एक्टिव कार्बन – 14 पाया जाता हैं मृत जीवों में रेडियों एक्टिव विघटन की वजह से कार्बन- 14 की मात्रा लगाकार घटती जाती हैं । जीवित जीवों में उपस्थिति कार्बन- 14 एवं जीवाश्मों में विघटन के बाद शेष कार्बन- 14 की तुलना करके जीवाश्मों की आयु ज्ञात कर ली जाती है।
कृत्रिम वरण द्वारा नये जीवों का विकास
पूर्णतया भिन्न दिखायी देने वाले जीवों का विकास भी एक समान जीवों से हो सकता हैं । और यह कृत्रिम वरण द्वारा सम्भव हैं। जैसे जंगली गोभी से कृत्रिम वरण द्वारा पूर्णत: भिन्न प्रकार की सब्जियों का विकास मानव द्वारा किया गया है। यह निम्न प्रकार हुआ –
1. जंगली गोभी की पत्तियों के बीच की दूरी कम करने से पत्ता गोभी का विकास हुआ ।
2. इसी प्रकार पुष्पों की वृद्धि रोकने से ब्रोकोली विकसित हुई ।
3. बंध्य पुष्पों से फूलगोभी का विकास किया गया ।
4. जंगली गोभी के फूले हुए भाग का चयन किए जाने से गांठ गोभी का विकास किया गया ।
5. जंगली गोभी के चौड़े पत्तों का चयन किए जाने से केल नामक सब्जी को विकसित किया गया।
आण्विक जातिवृत्त कोशिका विभाजन के समय डी.एन.ए. में होने वाले परिवर्तन से उस प्रोटीन में भी परिवर्तन आएगा जो नए डी.एन.ए. से बनेगी, दूसरी बात यह हुई कि यह परिवर्तन उत्तरोत्तर पीढ़ियों में संचित होते जाएँगे। क्या हम समय के साथ पीछे जाकर यह जान सकते हैं कि यह परिवर्तन किस समय हुए? आण्विक जातिवृत्त वास्तव में यही करता हैं । इस अध्ययन में यह विचार सन्निहित हैं कि दूरस्थ संबंधी जीवों के डी.एन.ए. में ये विभिन्नताएँ अधिक संख्या में संचित होंगी। इस प्रकार के अध्ययन विकासीय संबंधों को खोजते हैं तथा यह अत्यंत महत्वपूर्ण हैं कि विभिन्न जीवों के बीच आण्विक जातिवृत द्वारा स्थापित संबंध वर्गीकरण से सुमेलित होते हैं । |
आण्विक जातिवृत्त-
(i) यह इस विचार पर निर्भर करता हैं कि जनन के दौरान डी.एन.ए. में होने वाले परिवर्तन विकास की आधारभूत घटना है।
(ii) दूरस्थ संबंधी जीवों के डी.एन.ए. में विभिन्नताएँ अधिक संख्या में संचित होंगी।
प्रश्न:- विकास के आधार पर क्या आप बता सकते है कि जीवाणु, मकडी, मछली व चिम्पैजी में से किसका शारीरिक अभिकल्प (बनावट) उत्तम है ?और क्यो?
उत्तर- उक्त जीवों में से जीवाणु का शारीरिक अभिकल्प अन्य से उत्तम हैं। क्योंकि ये अपने विशिष्ट व सरलतम अभिकल्प की वजह से अत्यधिक गरम व ठण्डे वातावरण में भी जीवित रह सकते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि जैव विकास का अर्थ कोई वास्तविक प्रगति नहीं हैं। जरुरी नहीं कि नये की तुलना में प्राचीन अभिकल्प अदक्ष हो। ओर यह जीवाणु के उदाहरण से स्पष्ट हैं।
विकासात्मक सन्दर्भ में मानव, चिम्पैंजी के अधिक समान है ।
पृथ्वी पर मानव विकास
पृथ्वी पर मानव विकास को अध्ययन करने के लिए विभिन्न साधनों तथा उत्खनन, समय निर्धारण, जीवाश्म अध्ययन तथा डीएनए अनुक्रम का निर्धारण आदि का उपयोग किया गया है।
अब हमारे पास अति स्पष्ट प्रमाण हैं कि त्वचा का रंग आकार व आकृति अलग अलग होते हुए भी पृथ्वी पर मौजूद सभी मानवों का उद्भव अफ्रीका से हुआ है। लाखों साल पहले हमारे कुछ पूर्वजों ने अफ्रीका छोड़ दिया और वे पूरी पृथ्वी पर फैल गए।
परिणामस्वरूप अलग अलग पर्यावरणीय परिस्थितियों में उनमें त्वचा का रंग, आकार, आकृति इत्यादि परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। इन परिवर्तनों के होते हुए भी पृथ्वी पर मौजूद सभी मानव अन्तर्जनन कर सन्तान उत्पन्न करने में सक्षम है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पृथ्वी पर मौजूद सभी मानव एक ही जाति होमो सेपिएन्स के सदस्य है।
जिस प्रकार वर्गीकरण में जीवों के बीच पायी जाने वाली बाह्य और आन्तरिक समानताओं को देखा जाता है उसी प्रकार जीवों के विकास वृत्त को बनाने में भी जीवों के बीच पायी जाने वाली समानताओं को ध्यान रखा जाता है। ओर इस आधार पर यह देखा जाता कि जीवों का विकास किस प्रकार हुआ।
पाठगत प्रश्नोत्तर
पृष्ठ संख्या 157
प्रश्न:- 1. यदि एक लक्षण ‘-A’ अलैंगिक प्रजनन वाली समष्टि के 10 प्रतिशत सदस्यों में पाया जाता हैं तथा लक्षण ‘B’ उसी समष्टि में 60 प्रतिशत जीवों में पाया जाता हैं, तो कौन सा लक्षण पहले उत्पन्न हुआ होगा ?
उत्तर:- लक्षण -‘B’ पहले उत्पन्न हुआ होगा क्योंकि पिछली पीढ़ी में मौजूद अलैंगिक प्रजनन वाले लक्षण अगली पीढ़ी में न्यूनतम विविधताओं के साथ पाए जाते है। लक्षण – ‘B’ का प्रतिशत उच्च हैं इसलिए इसके पहले उत्पन्न होने की संभावना है।
प्रश्न:- 2. विभिन्नताओं के उत्पन्न होने से किसी स्पीशीज का अस्तित्व किस प्रकार बढ़ जाता है?
उत्तर:- लैंगिक जनन तथा डी.एन.ए. की गलत प्रतिकृति के कारण विभिन्न्ताएँ उत्पन्न होती है। प्रकृति की विविधता के आधार पर विभिन्न जीवों को विभिन्न प्रकार के लाभ हो सकते है। उदाहरण के लिए, ऊष्णता को सहन करने की क्षमता वाले जीवाणुओं को अधिक गर्मी से बचने की संभावना अधिक होती है। इस प्रकार विभिन्नताओं को उत्पन्न होने से किसी स्पीशीज का अस्तित्व बढ़ जाता है।
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