भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते | Bhaja Govindam Bhaja Govindam Govindam Bhaja Moodha Mate
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Bhaja Govindam Bhaja Govindam Govindam Bhaja Moodha Mate
भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते
भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।
संप्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृंकरणे ॥ 1 ॥
मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सदबुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥ 2 ॥
नारीस्तनभर नाभीदेशं दृष्टवा मागामोहावेशम्।
एतन्मांसावसादि विकारं मनसि विचिन्त्य वारं वारम् ॥ 3 ॥
नलिनीदलगत जलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥ 4 ॥
यावत् वित्तोपार्जन सक्त: स्तावन्निज परिवारो रक्त:।
पश्चाज्जीवति जर्जर देहे वार्तां कोपि न पृच्छति गेहे ॥ 5 ॥
यावत्पवनो निवसति देहे तावत्पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥ 6 ॥
बालस्तावत्क्रीडासक्त: तरुणस्तावत्तरुणी सक्त:।
वृद्धस्तावत् चिन्तासक्त: परे ब्रह्मणि कोपि न सक्त: ॥ 7 ॥
काते कान्ता कस्ते पुत्र: संसारो अयमतीव विचित्र:।
कस्य त्वं क: कुत आयात: तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रात: ॥ 8 ॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम्।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्ति: ॥ 9 ॥
वयसिगते क: कामविकार: शुष्के नीरे क: कासार:।
क्षीणेवित्ते क: परिवार: ज्ञाते तत्त्वे क: संसार: ॥ 10 ॥
मा कुरु धन जन यौवन गर्वं हरति निमेषात्काल: सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥ 11 ॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रात: शिशिरवसन्तौ पुनरायात:।
काल: क्रीडति गच्छत्यायु: तदपि न मुंचत्याशावायु: ॥ 12 ॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेष: कथितो वैयाकरणस्यैष:।
उपदेशो भूद्विधानिपुणै: श्रीमच्छन्करभगवच्छरणै: ॥ 13 ॥
काते कान्ता धन गतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥ 14 ॥
जटिलो मुण्डी लुन्चित केश: काषायाम्बरबहुकृतवेष:।
पश्यन्नपि चन पश्यति मूढ: उदरनिमित्तं बहुकृतवेष: ॥ 15 ॥
अंग गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुंचत्याशापिण्डम् ॥ 16 ॥
अग्रे वह्नि: पृष्ठेभानु: रात्रौ चुबुकसमर्पितजानु:।
करतलभिक्षस्तरुतलवास: तदपि न मुंचत्याशापाश: ॥ 17 ॥
कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिन: सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥ 18 ॥
सुर मंदिर तरु मूल निवास: शय्या भूतल मजिनं वास:।
सर्व परिग्रह भोग त्याग: कस्य सुखं न करोति विराग: ॥ 19 ॥
योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीन:।
यस्य ब्रह्मणि रमणे चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥ 20 ॥
भगवद् गीता किंचिदधीता गंगा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥ 21 ॥
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥ 22 ॥
रथ्या चर्पट विरचित कन्थ:पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थ:।
योगी योगनियोजित चित्तो रमते बालोन्मत्तवदेव ॥ 23 ॥
कस्त्वं कोहं कुत: आयात: का मे जननी को मे तात:।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वपन विचारम् ॥ 24 ॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णु: व्यर्थं कुप्यसि मय्य सहिष्णु:।
भव समचित्त: सर्वत्र त्वं वांछस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥ 25 ॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्व स्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥ 26 ॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढा: ते पच्यन्ते नरकनिगूढा: ॥ 27 ॥
गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन संगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥ 28 ॥
सुखत: क्रियते रामाभोग: पश्चाद्धन्त शरीरे रोग:।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुंचति पापाचरणम् ॥ 29 ॥
अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्तितत: सुखलेश: सत्यम्।
पुत्रादपि धन भाजां भीति: सर्वत्रैषा विहिआ रीति: ॥ 30 ॥
प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥ 31 ॥
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भकत: संसारादचिरादभव मुक्त:।
सेंद्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि हृदयस्थं देवम् ॥ 32 ॥
मूढ: कश्चन वैयाकरणो डुकृंकरणाध्ययन धुरिण:।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै बोधित आसिच्छोधितकरण: ॥ 33 ॥
भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं नहि पश्यामो भवतरणे ॥ 34 ॥
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