योगतत्व उपनिषद् | योग से परम शक्ति से युक्त
Hare krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare
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Sri Rama Rama Ramethi
Rame Rame Manorame
Sahasranama Tattulyam
Rama nama Varanane
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योगियों की हित कामना की दृष्टि से मैं योग तत्व का वर्णन करता हूं, जिसके श्रवण, अध्ययन तथा आचरण में धारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। योग तत्व उपनिषद्। विष्णु नामक महायोगी ही समस्त भूत प्राणियों के आदि महाभूत एवं महातपस्वी हैं। वे पुरुषोत्तम तत्व मार्ग में दीपक के सदृश्य प्रकाशमान हैं। पितामह ब्रह्माजी ने उन जगत के स्वामी भगवान विष्णु की आराधना एवं प्रणाम करके कहा हे जगन्नाथ! आप अष्टांग युक्त योग का उपदेश मुझे प्रदान करें। यह सुनकर उन भगवान हृषिकेश ने कहा कि मैं उस तत्व का वर्णन करता हूं। तुम ध्यान युक्त होकर श्रवण करो। ये सभी जीव सुख दुख के मायारूपी जाल में आबद्ध हैं। इस सुख दुख रूप माया के जाल को काटकर उन समस्त जीवों को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला तथा जन्म मृत्यु, जरा व्याधि से छुटकारा दिलाने वाला यही मृत्यु तारक मार्ग है। कैवल्य रूपी परम पद अन्य दूसरे मार्गों का आश्रय लेने से कठिनता से प्राप्त होता है। भिन्न भिन्न शास्त्रों के मतों में पड़कर ज्ञानी जनों की बुद्धि मोहग्रस्त हो जाती है। उस अनिर्वचनीय पद का उल्लेख देवगण भी नहीं कर सकते। तब उस स्व प्रकाशित आत्मा के रूप का वर्णन शास्त्रों में कैसे किया जा सकता है?
वह निष्कल, कला रहित, मल रहित, शांत, शरमाती, सबसे परे, निरामय, रोग रहित तत्त्व जीव रूप में पुण्य और पाप के फलों से पूर्ण हो जाता है। यहां यह प्रश्न उठता है कि जब वह परमात्मा सभी भाव और पद से परे नित्य ज्ञान, रूप एवं माया रहित है, तब वह जीव भाव को कैसे प्राप्त हो जाता है? उस परमात्म तत्व में जल के सदृश्य स्फुरण हुआ और उसमें अहंकार की उत्पत्ति हुई। तब पंचमहाभूत रूप धातु से आबद्ध गुणात्मक पिंड उत्पन्न हुआ। उस विशुद्ध परमात्मा ने सुख दुख से युक्त होकर जीव भावना की। इससे उसे जीव नाम दिया गया। काम, क्रोध, भय, मोह, लोभ, मद, रजोगुण, जन्म, मृत्यु कार्य, पण्य, कंजूसी, शोक, तन्द्रा, क्षुधा, तृष्णा, लज्जा, भय, दुख, विषाद, हर्ष आदि समस्त दोषों से मुक्ति मिल जाने पर जीव को केवल विशुद्ध माना गया है। अब उन दोषों को दूर करने का उपाय कहता हूं। योग विहीन ज्ञान मोक्ष देने वाला कैसे हो सकता है? ज्ञान रहित योग से भी मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता। इस कारण मोक्ष के अभिलाषी को ज्ञान और योग दोनों का ही दृढ़ अभ्यास करना चाहिए। अज्ञान से ही यह संसार बंधन स्वरूप है तथा ज्ञान के द्वारा ही इस संसार से निवृत्ति हो सकती है। ज्ञान स्वरूप ही आदि में है और ज्ञान के माध्यम से ही ज्ञेय को प्राप्त किया जा सकता है। जिसके द्वारा अपने स्वरूप का ज्ञान हो और कैवल्य पद परमपद, निष्कल, कला रहित, निर्मल, सच्चिदानन्दस्वरूप, उत्पत्ति, स्थिति, संहार एवं स्फुरण का ज्ञान हो, वही वास्तविक ज्ञान है
अब इसके आगे योग के संदर्भ में वर्णन करते हैं हे ब्रह्मण! व्यवहार की दृष्टि से योग के अनेकानेक भेद बताए गए हैं जैसे मंत्र योग, लय योग, हठ योग एवं राजयोग आदि। योग की चार अवस्थाएं सर्वत्र वर्णित की गई हैं। ये अवस्थाएं आरंभ, घट, परिचय एवं निष्पत्ति हैं। इन चारों अवस्थाओं के लक्षण संक्षेप में वर्णित किए जाते हैं। मंत्र योग जो मातृका आदि से युक्त मंत्र को 12 वर्ष जप करता है, वह क्रमशः अणिमा आदि का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। परंतु इस तरह का योग अल्प बुद्धि वाले लोग करते हैं तथा वे अधम कोटि के साधक होते हैं। चित्त का लय ही लय योग है। वह करोड़ों तरह का कहा गया है। चलते, बैठते, रुकते, शयन करते, भोजन करते, कला रहित परमात्मा का निरंतर चिंतन करता रहे। इस प्रकार वह तो योग हुआ। अब हठयोग का श्रवण करो। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, भृकुटी के मध्य में श्रीहरि का ध्यान तथा समाधि। साम्यावस्था को अष्टांग योग कहते हैं। महामुद्रा।
महाबंद, महावीर और खेचरी मुद्रा, जालन्धर बंध, उद्द्यान बंध, मूलबंध, दीर्घ प्रणव संधान, परम सिद्धांत को सुनना तथा जरौली, अमरोली एवं सहज बोली ये तीन मुद्राएं हैं। हे ब्राह्मण! अब आप इनमें से प्रत्येक के लक्षणों को सुनें। यमों में एकमात्र सूक्ष्म आहार ही प्रमुख है तथा नियमों के अन्तर्गत अहिंसा प्रधान है। सिद्ध, पद्म, सिंह तथा भद्र ये चार मुख्य आसन हैं। हे चतुरानन! सर्वप्रथम अभ्यास के प्रारंभिक काल में ही विघ्न उपस्थित होते हैं जैसे आलस्य, अपनी बड़ाई, धूर्त बनने की बातें करना तथा मंत्र आदि का साधक श्रेष्ठ बुद्धिमान साधक को धातु, रुपया आदि। धन, स्त्री, ललिता, चंचलता आदि को मृगतृष्णा रूप समझकर तथा विघ्न रूप जानकर त्याग देना चाहिए। तदनन्तर उस श्रेष्ठ साधक को पद्मासन लगाकर प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले एक छोटी सी पर्णकुटी छोटे द्वार से युक्त तथा बिना छिद्र वाली विनिर्मित करें। तत्पश्चात उस कुटी को गाय के गोबर से लीपकर शोभनीय बनाएं तथा ठीक तरह से स्वच्छ करें और प्रयत्नपूर्वक खटमल, मच्छर, मकड़ी आदि जीवों से रहित करें। प्रतिदिन उस कुटिया को झाड़ बुहार कर के स्वच्छ करता रहे एवं साथ ही उसे धूप, गुगल आदि की धूनी देकर सुवासित भी करता रहे। जो न तो बहुत अधिक ऊंचा तथा न ही अति नीचा हो। ऐसे वस्त्र, मृगचर्म या कुश के आसन पर बैठकर पद्मासन लगाना चाहिए। शरीर को सीधा रखकर हाथ जोड़ते हुए ईष्ट देवता को प्रणाम करें। तत्पश्चात दाएं हाथ के अंगूठे से पिंगला को दबाकर शनैः शनैः वायु को भीतर की ओर खींचे तथा उसे यथाशक्ति रोक कर कुम्भक करें। तत्पश्चात पिंगला द्वारा उस वायु को सामान्य गति से बाहर
निकाल देना चाहिए। इसके बाद पिंगला से वायु को पेट में पुनः भरकर शक्ति के अनुसार ग्रहण करके रेचक करें। इस प्रकार जिस तरफ के नथुने से वायु बाहर निकाले उसी तरफ से पुनः भरकर दूसरे नथुने से बाहर निकालता रहे। न तो अत्यंत द्रुत गति से और न ही अत्यंत धीमी गति से वरन सहज सामान्य गति से जानु की प्रदक्षिणा करके एक चुटकी बजाएँ। इतने समय को एक मात्रा कहा जाता है। सर्वप्रथम इडा में 16 मात्रा तक। वायु को खींचे। तत्पश्चात् 64 मात्रा तक कुम्भक करें और तब इसके बाद 32 मात्रा तक पिंगला नाड़ी से रेचक करें। इसके बाद दूसरी बार पिंगला से वायु खींचकर पहले की भांति ही सारी क्रिया संपन्न करें। प्रातः, मध्याह्न, सायंकाल एवं अर्धरात्रि के समय चार बार धीरे धीरे क्रमशः 80 कुम्भक तक का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। इस तरह से तीन मास तक अभ्यास करने से नाड़ी शोधन हो जाता है। ऐसी शुद्धि होने से उस श्रेष्ठ साधक के चिह्न भी योगी की देह में दृष्टिगोचर होने लगते हैं। वे चिह्न ऐसे हैं कि शरीर में हलकापन मालूम पड़ता है। जठराग्नि तीव्र हो जाती है। शरीर भी निश्चित रूप से कृश हो जाता है। ऐसे समय में योग में बाधा पहुंचाने वाले आहार का परित्याग कर देना चाहिए। नमक, तेल, खटाई, गर्म, रूखा, तीक्ष्ण भोजन, हरी साग, हींग आदि। मसाले। आग से ताप, ना स्त्री प्रसंग अधिक चलना, प्रातः काल का स्नान उपवास तथा अपने शरीर को पीड़ा पहुँचाने वाले अन्य कार्यों को प्रायः त्याग ही देना चाहिए। अभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में दुग्ध घृत का भोजन ही सर्वश्रेष्ठ है। गेहूं, मूँग एवं चावल का भोजन योग में वृद्धि
प्रदान करने वाला बतलाया गया है। इस प्रकार अभ्यास करने से वायु को इच्छानुसार धारण करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। यथेष्ट वायु धारण कर सकने के उपरांत केवल कुम्भक सिद्ध हो जाता है और तब रेचक और पूरक का परित्याग कर देना चाहिए। फिर श्रेष्ठ योगी के लिए तीनों लोकों में कभी कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। अभ्यास के समय जो पसीना निकले, उसे अपने शरीर में ही मल लेना चाहिए। इसके अनंतर वायु की धारणा शक्ति निरंतर शनैः शनैः बढ़ती रहने से आसन पर बैठे हुए साधक के शरीर में कम्पन होने लगता है। इससे आगे और अधिक अभ्यास होने पर मेढ़क की तरह चेष्टा होने लगती है। जिस तरह से मेढक उछलकर फिर जमीन पर आ जाता है, उसी तरह की स्थिति पद्मासन पर बैठे योगी की हो जाती है। जिस तरह से मेढक उछलकर फिर जमीन पर आ जाता है, उसी तरह की स्थिति पद्मासन पर बैठे योगी की हो जाती है। जब अभ्यास इससे भी अधिक बढ़ता है तो फिर वह योगी जमीन से ऊपर उठने लगता है। पद्मासन पर बैठा हुआ योगी। अत्यंत अभ्यास के कारण भूमि से ऊपर ही उठा रहता है। वह इस तरह से और भी अति मानुषी चेष्टाएं निरंतर करने लगता है। परन्तु योगी को इस प्रकार की शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए वरन स्वयं ही देखकर अपना उत्साहवर्धन करना चाहिए। तब थोड़ा बहुत कष्ट भी योगी को पीड़ा नहीं पहुंचा सकता। योगी का मल मूत्र अति न्यून हो जाता है तथा निद्रा भी घट जाती है। कीचड़, नाक, थूक, पसीना, मुख की दुर्गंध आदि योगी को नहीं होती तथा निरंतर अभ्यास बढ़ाने से उसे बहुत बड़ी शक्ति मिल जाती है। इस
प्रकार से योगी को गोचर सिद्धि की प्राप्ति होने से समस्त भू चरों पर विजय की प्राप्ति हो जाती है। व्याघ्र, शरभ, हाथी गवैया, नीलगाय, सिंह आदि योगी के हाथ मारने मात्र से ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। उस योगी का स्वरूप भी कामदेव के सदृश सुंदर हो जाता है। उस योगी के रूप का अवलोकन कर अनेकानेक स्त्रियां आकृष्ट होकर उससे भोग की इच्छा करने लगती हैं। लेकिन यदि योगी उनकी इच्छा की पूर्ति करेगा तो उसका वीर्य नष्ट हो जाएगा। अतः स्त्रियों का चिंतन न करके दृढ़ निश्चयी होकर निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। वीर्य को धारण करने से योगी के शरीर से सुगंध आने लगती है। तदनन्तर एकांत स्थल पर बैठकर प्लुत मात्रा तीन मात्रा से युक्त प्रणव ओमकार का जप करते रहना चाहिए, जिससे पूर्व जन्मों के पापों का विनाश हो जाए। यह ओमकार मंत्र सभी तरह के विघ्न बाधाओं एवं दोषों का हरण करने वाला है। इसका निरंतर अभ्यास करते रहने से सिद्धियां हस्तगत होने लगती हैं। इसके पश्चात वायु धारण का अभ्यास करना चाहिए। इस क्रिया से घटा अवस्था की प्राप्ति सहज रूप से होने लगती है। जिस अभ्यास में प्राण, अपान, मन, बुद्धि, जीव तथा परमात्मा में जो पारस्परिक निर्विरोध एकता स्थापित होती है, उसे घटा अवस्था कहा गया है। उसके चिह्नों का वर्णन आगे के श्लोकों में करते हैं। पूर्व में जितना अभ्यास योगी करता था, उसका चतुर्थ भाग ही अब करें। दिन अथवा रात्रि में मात्र एक प्रहर ही अभ्यास करना चाहिए। दिन में एक बार ही केवल कुम्भक करें एवं कुम्भक में स्थिर होकर इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर लाएं। यही प्रत्याहार होता है। उस समय आंखों से
जो कुछ भी देखें, उसे आत्मीय मत समझें। जो भी कुछ करने इन्द्रिय से श्रवण करे तथा जो कुछ भी नासिका के द्वारा सूंघे उस सभी को आत्म भावना से ही स्वीकार करें। जिह्वा के माध्यम से जो भी कुछ रस ग्रहण करें, उसको भी आत्मरूप जानें। त्वचा से जो कुछ भी स्पर्श हो उसमें भी अपनी आत्मा की ही भावना करें। इसी तरह से ज्ञानेन्द्रियों के जितने भी विषय हैं उन सब को योगी अपनी अंतरात्मा में धारण करें तथा प्रतिदिन एक प्रहर तक इस क्रिया का आलस्य त्यागकर प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करें। इस प्रकार के अभ्यास द्वारा जैसे जैसे योगी की चित्त शक्ति बढ़ती है वैसे वैसे ही उसको दूर श्रवण दूरदर्शन क्षण भर में सुदूर क्षेत्र से आ जाना, वाणी की सिद्धि जब चाहे जैसा रूप ग्रहण कर लेना, अदृश्य हो जाना, उसके मल मूत्र के स्पर्श से लोहे का स्वर्ण में परिवर्तन हो जाना। आकाश मार्ग से गमन कर सकना आदि सिद्धियाँ प्रकट होने लगती हैं। बुद्धिमान श्रेष्ठ योगी सदैव योग की सिद्धि की ओर ही ध्यान बनाए रखें। परंतु यह सभी सिद्धियां योग सिद्धि के लिए विघ्न रूप हैं। बुद्धिमान योगी साधक को इन सिद्धियों से बचना चाहिए। अपनी इस तरह की सामर्थ्य को कभी भी किसी के समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए। इसलिए श्रेष्ठ योगी को जनसामान्य के समक्ष अज्ञानी, मूर्ख एवं बधिर की भांति बनकर रहना चाहिए। अपनी सामर्थ्य को सभी तरह से छिपाकर गुप्त रीति से रहना चाहिए। शिष्य समुदाय अपने अपने कार्यों के लिए योगी साधक से निश्चित ही प्रार्थना करेंगे। किंतु योगी को उन शिष्य गणों के काम में पड़कर अपने कर्तव्य अभ्यास को विस्मृत नहीं कर देना चाहिए। उस योगी को चाहिए कि गुरु के वाक्यों को याद करके
, सभी तरह के क्रियाकलापों को छोड़कर योग के अभ्यास में लगा रहे। इस प्रकार लगातार योग के अभ्यास से उसे घटा अवस्था की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु इस तरह की सिद्धि अभ्यास के द्वारा ही मिल सकती है। केवल बातों से कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता। अतः योगी को निरंतर प्रयत्नपूर्वक योग का अभ्यास करते रहना चाहिए। तदनंतर अभ्यास योग से परिचय अवस्था का शुभारंभ होता है। उस अवस्था के लिए प्रयत्नपूर्वक वायु से प्रदीप्त अग्नि सहित कुण्डलिनी को साधना के द्वारा जागृत करके भावना पूर्वक सुषुम्ना में अवरोध रहित प्रवेश कराना चाहिए। तत्पश्चात् वायु के सहित चित्त को महा पथ में अग्रसर करना चाहिए। जिस योगी का चित्त वायु के सहित सुषुम्ना नाड़ी में प्रविष्ट हो जाता है, उसे पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश इन पंचमहाभूत रूपी देवों की पाँच प्रकार की धारणा हो जाती है। पैरों से जानु घुटनों तक पृथ्वी तत्व का स्थान बतलाया गया है। चार कोणों से युक्त यह पृथ्वी पीतवर्ण लकार से युक्त कही गई है। पृथ्वी तत्व में वायु को आरोपित करते हुए लकार को उसमें संयुक्त करके उस स्थान में स्वर्ण के समान रंग से युक्त चार भुजाओं एवं चतुर्मुख ब्रह्मा जी का ध्यान करना चाहिए। इस तरह से पाँच घटी दो घंटे तक ध्यान करने से योगी पृथ्वी तत्व को जीत लेता है। ऐसे योगी की पृथ्वी के संयोग, विकार या आघात से मृत्यु नहीं होती। घुटनों से गुदा स्थान तक जल तत्व का क्षेत्र बतलाया गया है। यह जल तत्व अर्द्धचंद्र के रूप में एवं बीच वाला होता है। इस जल तत्व में वायु को आरोपित करते हुए वह बीज को समन्वित करके चतुर्भुज मुकुट धारण किए हुए पवित्र स्फटिक के सदृश्य पीत वस्त्रों से
आच्छादित अच्युत देव श्रीनारायण का पांच घटी दो घंटे तक ध्यान करना चाहिए। इससे सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है। इसके पश्चात उस योगी को जल से किसी भी तरह का डर नहीं रहता और न ही जल्द से उसकी मृत्यु हो सकती है। जल तत्व गुदा भाग से हृदय क्षेत्र तक अग्नि का स्थान बताया गया है। तीन कोणों से युक्त अग्नि लाल रंग वाला एवं प्रकार से संयुक्त होता है। अग्नि में वायु को आरोपित करके उस समूह जल सरकार को समन्वित करना चाहिए। त्रि अक्ष तीन नेत्रों से युक्त वर प्रदान करने वाले तरुण आदित्य के सदृश प्रकाशमान तथा समस्त अंगों में भस्म धारण किए हुए भगवान रुद्र को प्रसन्न मन से सदा ध्यान करना चाहिए। पांच घंटे दो घंटे तक इस तरह से चिंतन करने से वह योगी अग्नि से नहीं जलाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रखर जलती हुई अग्नि में भी संयोगवश प्रविष्ट कराया जाए तो भी वह नहीं जलता। हृदय क्षेत्र से भृकुटी तक का स्थान वायु का क्षेत्र कहा गया है। यह षटकोण के आकार वाला, कृष्ण वर्ण से युक्त, भास्वर अक्षर वाला होता है। मरुत स्थान पर आकार होता है। यहां यह अक्षर के सहित विश्व तो मुख सर्वज्ञ ईश्वर का सतत चिंतन करना चाहिए। इस तरह पांच घंटे अर्थात दो घंटे तक उन विश्व मुख भगवान का ध्यान करने से योगी वायु के सदृश्य आकाश में गमन करने वाला हो जाता है। उस महान योगी को वायु से किसी भी तरह का भय नहीं व्याप्त होता तथा वह वायु से मृत्यु को भी नहीं प्राप्त होता। भृकुटि के मध्य भाग से लेकर मूर्धा के अंत तक का आकाश तत्व का क्षेत्र कहा गया है। यह व्योम वृत्त के आकार वाला,
धूम्रवर्ण से युक्त तथा कार अक्षर से प्रकाशित है। इस आकाश तत्व में वायु का आरोपण करके हम कार के ऊपर भगवान शंकर का ध्यान करें। जो बिन्दु रूप महादेव है वही व्योम आकार में सदाशिव रूप है। वे भगवान शिव परम पवित्र स्फटिक के सदृश्य निर्मल हैं। बाल रूप चन्द्रमा को मस्तक में धारण किए हुए हैं। पांच मुखों से युक्त सौम्य दश भुजा एवं तीन नेत्रों से युक्त है। वे भगवान शिव सभी प्रकार के शस्त्रास्त्रों को धारण किए हुए, विभिन्न प्रकार के आभूषणों से विभूषित, पार्वतीजी से सुशोभित, अर्ध अंग वाले, वर प्रदान करने वाले तथा सभी कारणों के भी कारण रूप हैं। उन भगवान शिव का ध्यान आकाश तत्व में करने से निश्चित ही आकाश मार्ग में गमन की शक्ति मिल जाती है। इस ध्यान से साधक कहीं भी रहे, वह अत्यंत सुख की प्राप्ति करता है। इस प्रकार विशेष लक्षणों से संयुक्त योगी को पांच तरह की धारणा करनी चाहिए। इस धारणा से उस योगी का शरीर अत्यंत दृढ़ हो जाता है तथा उसे मृत्यु का भय भी व्याप्त नहीं होता। ब्रह्म प्रलय अर्थात चराचर में जल ही जल की स्थिति होने पर भी वह महामति दुख को प्राप्त नहीं होता। छह घटी अर्थात् दो घंटे 24 मिनट तक वायु को रोककर आकाश तत्व में इष्ट सिद्ध दाता देवों को निरंतर ध्यान करते रहना चाहिए। सगुण ध्यान करने से अणिमा आदि सिद्धियां प्राप्त होती हैं तथा निर्गुण रूप में चिंतन करने से समाधि की स्थिति प्राप्त होती है। योग में निष्णात साधक मात्र 12 दिन में ही समाधि की सिद्धि अवस्था को प्राप्त कर लेता है। वह योगी वायु प्राण को स्थिर करके समाधि को सिद्ध करके अपने जीवन में मुक्ति प्राप्त कर लेता है
। समाधि में जीवात्मा एवं परमात्मा की समान अवस्था हो जाती है। उसमें यदि अपना शरीर छोड़ने की इच्छा हो तो उसका परित्याग भी किया जा सकता है। इस प्रकार से योगी अपने आप को परब्रह्म में विलीन कर लेता है। उसे पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता किंतु यदि उसको शरीर प्रिय लगता है तो वह स्वयं ही अपने शरीर में स्थित होकर अणिमा आदि समस्त सिद्धियों से युक्त हो सभी लोकों में गमन कर सकता है तथा यदि चाहे तो कभी भी देवता होकर स्वर्ग में निवास कर सकता है। योगी स्वेच्छा से मनुष्य अथवा यक्ष का रूप भी क्षणभर में धारण कर सकता है। वह सिंह है। हाथी, घोड़ा आदि अनेक रूपों को स्वेच्छापूर्वक धारण कर सकने में समर्थ होता है। महेश्वर। पद के प्राप्त हो जाने पर योगी इच्छानुकूल व्यवहार कर सकता है। यह भेद तो मात्र अभ्यास का ही है। फल की दृष्टि से तो दोनों समान ही है। साधक को चाहिए कि बांये पैर की एड़ी के द्वारा योनि स्थान को दबाएं तथा दाएं पैर को फैलाकर उस पैर के अंगूठे को मजबूती से पकड़ लें। इसके बाद ठोड़ी को छाती से लगा लेना चाहिए। तदनंतर वायु को धीरे धीरे अंदर धारण करें और शक्ति के अनुसार कुम्भक करें। फिर रेचक के द्वारा वायु को बाहर निकाल देना चाहिए। इस क्रिया को निरंतर अभ्यास पूर्वक बाएं अंग से करने के उपरांत दाएं अंग से करें। अर्थात जो पैर फैलाया हुआ था उसे योनि के स्थान पर लगाएँ और जो योनि के स्थान पर था उसे फैलाकर अंगूठे को दृढ़तापूर्वक पकड़ लेना चाहिए। यही महाबंद कहलाता है। इस बंद का दोनों ही प्रकार से अभ्यास किया जाता है। महाबंद की क्रिया में सतत संलग्न रहने वाले
योगी को एकाग्र होकर कण्ठ की मुद्रा द्वारा वायु की गति को आवृत्त करके दोनों नासिका रंध्रों को संकुचित करने से तत्परतापूर्वक वायु भर जाती है। सिद्ध योगी जन इस ऊपर वर्णित महा वेद का निरंतर अभ्यास करते रहते हैं। जिह्वा को लौटाकर अन्तः कपाल को हर में लगाकर दोनों भृकुटी के मध्य में दृष्टि को स्थिर करना खेचरी मुद्रा है। कंठ को संकुचित करके ठोडी को दृढ़तापूर्वक वक्ष पर स्थापित करना ही जालन्धर बंध कहलाता है जो मृत्यु रूपी हाथी के लिए सिंह के समान होता है। जिस बन्ध से प्राण सुषुम्ना में उठ जाता है उसे योगी लोग उद्द्यान बंध कहते हैं। एडी से योनि स्थान को ठीक प्रकार से दबाकर अंदर की तरफ खींचें। इस तरह अपान को उर्ध्व की ओर उठाएं। यही योनि बन्ध कहलाता है। इस क्रिया से प्राण, अपान, नाद और बिंदु में मूल बंध के द्वारा एकता की प्राप्ति होती है तथा यह संशय रहित योग सिद्ध कराने वाला है। अब विपरीत करणी मुद्रा के संदर्भ में बतलाते हैं। इसे समस्त व्याधियों का विनाश करने वाली कहा गया है। इस विपरीत करणी मुद्रा का नित्य अभ्यास करने से साधक की जठराग्नि बढ़ जाती है। इस कारण साधक अधिक आहार भोजन को पचा सकने में समर्थ हो जाता है। यदि साधक कम भोजन ग्रहण करेगा तो उसकी जठराग्नि उसके शरीर को ही नष्ट करने लगेगी। इस मुद्रा के लिए प्रथम दिन क्षणभर के लिए सिर नीचे की ओर करके तथा पैरों को ऊपर की ओर करें। इसके पश्चात प्रत्येक दिन एक एक क्षण भर निरंतर अभ्यास बढ़ाता रहे तो छह मास में ही साधक के शरीर की झुर्रियां तथा बालों की सफेदी समाप्त हो जाएगी। जो प्रतिदिन एक प्रहर तीन घंटे तक इस विपरीत करणी मुद्रा
का अभ्यास करता है वह योगी काल को अपने वश में कर लेता है। जो योगी व रोली मुद्रा का नित्य अभ्यास करता है वह जल्दी ही सिद्धि अवस्था को प्राप्त कर सकता है। जो उस मुद्रा का अभ्यास कर लेता है तो योग की सिद्धि उसके हाथ में ही जानना चाहिए। वह भूत भविष्यत् का ज्ञाता हो जाता है तथा वह अवश्य ही आकाश मार्ग से गमन करने में समर्थ हो जाता है। इसके पश्चात वह राजयोग सिद्ध करने में समर्थ हो जाता है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। राजयोग के सिद्ध हो जाने से योगी को हठयोग की शरीर संबंधी क्रियाओं की जरूरत नहीं पड़ती। उसे निश्चय ही वैराग्य एवं विवेक की प्राप्ति सहज हो जाती है। भगवान विष्णु ही महायोगी, महाभूत, स्वरूप तथा महान तपस्वी हैं। तत्व मार्ग पर गमन करने वाले को वे पुरुषोत्तम दीपक की भांति दृष्टिगोचर होते हैं। यह जीवन विभिन्न योनियों में घूमता हुआ मानव योनि में आता है। तब वह जिस स्तन को पीता है, दूसरी अवस्था में वैसे ही स्तन को दबाकर आनंदानुभूति करता है। जीव ने जिस योनि में जन्म लिया था वैसी ही योनि में पुनः पुनः रमण किया करता है। एक जन्म में जो मां होती है वही दूसरे जन्म में पत्नी भी हो जाती है तथा जो पत्नी होती है वह माता बन जाती है। जो पिता होता है वह पुत्र बन जाता है तथा जो पुत्र होता है वह पिता के रूप में जन्म ले लेता है। इस तरह से यह संसार चक्र, कूप चक्र पानी खींचने की रहट के सदृश्य है जिसमें प्राणी नाना प्रकार की योनियों में सतत गमनागमन करता रहता है। लोग हैं। तीन ही वेद कहे गए हैं। तीन
संध्याओं हैं। तीन स्वर हैं। तीन अग्नि हैं। तीन गुण सत, रज, तम बतलाए गए हैं तथा तीन अक्षरों में सभी कुछ विद्यमान हैं। अतः इन तीन अक्षरों तथा अक्षर का भी योगी को अध्ययन करना चाहिए। सभी कुछ उसी तीन अक्षरों में पिरोया हुआ है। वही सत्य स्वरूप है, वही शाश्वत परमपद है। जैसे पुष्प में सुगंध होती है, दुग्ध में घृत सन्निहित है, तिलों में तेल उत्पन्न होता है और प्रस्तर खंड में स्वर्ण निहित है, वैसे ही वह भी सभी में व्याप्त है। हृदय संस्थान में जो कमलपुष्प स्थित है, उसका मुख नीचे की ओर है एवं उसकी नाल दंडी ऊर्ध्व की ओर है। नीचे बिंदु है, उसी के मध्य में मन प्रतिष्ठित है। आकार में रचित किया हुआ हृदय कमल का कार से भेदन किया जाता है एवं कार में नाद ध्वनि को प्राप्त होता है। अर्ध मात्रा निश्चल, शुद्ध, स्फटिक के समान निष्कल एवं पापनाशक है। इस प्रकार योग से संयुक्त हुआ योगी पुरुष मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है। जिस तरह से कच्छप अपने हाथ, पैर एवं सिर को अपने अंदर प्रतिष्ठित कर लेता है, उसी तरह से सभी द्वारों से भर कर करके दबाया हुआ वायु नौ द्वारों के बंद होने से ऊर्ध्व की ओर गमन कर जाता है। जिस तरह वायु रहित घड़े के मध्य में स्थिर लौ वाला दीपक रखा होता है, उसी तरह से कुम्भक को जानना चाहिए। इस योग साधना में नौ द्वारों के अवरुद्ध किए जाने पर सुनसान एवं निरूपित द्रव स्थान में आत्म तत्व ही मात्र शेष रहता है। ऐसा ही योग तत्व उपनिषद है। अतः यह योग सर्वप्रथम गुरु के सानिध्य में सिख लेवें। तत्पश्चात
एकांत में श्रद्धापूर्वक प्रयोग कर समस्त ऐश्वर्य आदि को प्राप्त करें। ओम् शान्ति विश्वम।
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